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जैन धर्म की प्राचीनता और उसका प्रसार
प्राऐतिहासिक काल में जैन धर्म ।
कामताप्रसाद जैन, D. L, M R. A.. S. जैन धर्म को एक सम्प्रदाय विशेष समझना गलत है-सम्प्रदाय तो वह अर्वाचीन काल में बना दिया गया है । वस्तुतः वह धर्मविज्ञान है-वीतरागभाव की साधना का उपाय वह बताता है । मानव जीवन की सार्थकता के लिये वह एक सही मार्ग है । इसीलिये आचार्योंने उसे ' मार्ग' कहा है । ' धर्म ' भी वह है, परंतु वस्तुस्वभावमूलक-' वत्थुसहावो धम्मो '। इस दृष्टि से विचार करने पर हम जैनधर्म और सत्य में कोई अन्तर नहीं पाते । चूंकि सत्य शाश्वत है, अतः जिनोपदिष्ट धर्म भी शाश्वत है, यह कहना ठीक है । निश्चयात्मक दृष्टिकोण ( Realistic Viewpoint ) जैनधर्म को अनादिनिधन प्रमाणित करता है ।
किन्तु सत्तात्मकरूप Reality की अभिव्यक्ति दृश्य लोक में नाना प्रकार से समयसमय पर होती है। अतएव उस शाश्वतरूप का आदि और अन्त भी समय-समय पर देखा जाता है। सूर्यबिम्ब प्रतिदिन उगता और अस्त होता है, फिर भी वह अपना रूप नहीं खोता । यही बात धर्मतत्वरूपी सूर्य के लिये घटित होती है । अतः यह प्रश्न स्वाभाविक है कि इस कल्पकाल में जैनधर्म की अभिव्यक्ति कब और कैसे हुई !
श्रद्धालु पुरुष यदि पूंछे तो उसका समाधान तो आगम-प्रमाण से सहज ही किया जा सकता है; परंतु यह बुद्धिवादी युग है । लोग बात-बात में तर्क करते हैं । अतः यह उत्तर देना पर्याप्त नहीं कि जैनशास्त्र इस कल्पकाल में कर्मभूमि की आदि में प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव द्वारा धर्म की प्रतिष्ठा हुई बताते हैं । वही धर्म आज जैनधर्म के नाम से प्रसिद्ध है।
1. Barth, Religion of India, ( 1892 ); Elphinstone, History of India.