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और जैनाचार्य देवेन्द्रसूरिकृत नव्य-कर्मग्रन्थ । के बन्धों का स्वरूप बताया है। इन का सामान्य परिचय तो प्रथम कर्मग्रंथ में दे दिया गया है, किन्तु विशेष विवेचन के लिए प्रस्तुत ग्रंथ का आधार लिया गया है। प्रकृतिबन्ध का वर्णन करते हुए आचार्यने मूल तथा उत्तरप्रकृतियों से सम्बन्धित भूयस्कार, अस्पतर, अवस्थित एवं अवतव्य बन्धों पर प्रकाश डाला है । स्थितिबन्ध का विवेचन करते हुए जघन्य तथा उस्कृष्ट स्थिति एवं इस प्रकार की स्थिति का बन्ध करनेवाले प्राणियों का वर्णन किया है। अनुभागबन्ध के वर्णन में शुभाशुभ प्रकृतियों में तीव्र अथवा मन्द रस पड़ने के कारण, उत्कृष्ट व जघन्य अनुभागबन्ध के स्वामी इत्यादि बातों का समावेश किया है । प्रदेशबन्ध के वर्णन में वर्गणाओं का विस्तारपूर्वक विवेचन किया गया है एवं अन्त में उपशमश्रेणी एवं क्षपकश्रेणी का स्वरूप बताया गया है ।
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