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और जैनाचार्य आचार्य श्री राजेन्द्रसूरिजी की शानोपासना ।
निजिय बहु बुहवाया विगयपमाया सयाहुयक्खाणा । जिनराजसूरि पाया हवंतु, ते सुप्पसाया मे ॥ २३ ॥ निय सीस वग्गकजे अणोरराउ सुयसमुदाउ । पगरणमिण मुद्धरियं, गणिणा सिरिराजहंसेण ॥ २४ ॥ जं किंचि मए लिहियं असुद्धरुवं पयक्खरं वावि । सोहं तुतं सुयराह अमच्छ राम मपसन्नमणा ॥ २५॥ चक्खं दहीस मिई मही' विक्कमवरिसंमि मंडलकरंमि । पणहुतरि सहीयाय अठारसयं सिलोगाणं ॥ २६ ॥ जावय खे रविचन्दा, पहासयंताय भारंह खितं ।। तावय पगरणमेयं पठिन्ज भाणं थिरं होउ ॥ २७॥
इति श्रीजिनवचन रत्नकोस प्रकरणं समाप्तं ॥ छ । ॥ ग्रंथानं १८७५ ॥ शुभं भवतु ॥ श्री ॥ पत्र ४३ राजेन्द्रसूरि ज्ञानभण्डार-आहोर
इस भण्डार की सूची सं. २००१ में यतीन्द्र सूरिजीने बनाई थी, पर बहुत से प्रन्थों के कताओं के नाम सूची में नहीं है और कुछ के नाम जो दिए हैं गलत भी हैं । इसलिए सावधानीपूर्वक विवरणात्मक सूची बनाने की आवश्यकता है। राजेन्द्रसूरिजी हमारे लिए ज्ञानकी महान् सम्पत्ति उपरोक्त १२ भण्डारों में रख गए हैं, उसका ठीक से उपयोग हो । आज अधिकांश भण्डारों के व्यवस्थापक न स्वयं उसका लाभ उठाते है और न दूसरों को उठाने में सहायक होते हैं। यह एक तरह से ज्ञान की आसातना ही है जो मिटानी आवश्यक है।
राजेन्द्रसूरिजीने दूसरी एक ज्ञानसेवा अपने शिष्यों को ज्ञान दे कर विद्वान् बनाने के रूप में की है। उनके शिष्यमण्डल में कई अच्छे विद्वान् हुए हैं, व जिन्होंने अपने गुरुश्री के कामको आगे बढ़ाया । अभिधान राजेन्द्रकोश को उन्होंने प्रकाशित करवाया, नये ग्रन्थ बनाये व बहुत से ग्रन्थ छपवाए । यह सब राजेन्द्रसूरिजी की ज्ञानोपासना का ही मुफल है । स्वर्गीय आचार्यश्री की इन विविध प्रकार की ज्ञानोपासना से हम प्रेरणा व शिक्षण ग्रहण करें यही सच्ची गुरुभक्ति होगी।