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और जैनाचार्य
युगपुरुष श्री राजेन्द्रसूरि ।
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पञ्चानन, वादिवेताल श्री शान्तिसूरि, श्रीमुनि चन्द्रसूरि, श्रीवादिदेवसूरि, श्रीहेमचन्द्राचार्य, श्रीरत्नप्रभसूरि, श्रीनरचन्द्रसूरि, मलधारी देवप्रभसूरि, पञ्चप्रस्थान महाव्याख्या ग्रन्थ के रचयिता श्री अभयतिलकगणि, श्रीराजशेखर, श्रीपार्श्वदेवगण प्रमुख तार्किक आचार्योंने विविध प्रकार के दर्शनप्रभावक मौलिक शास्त्रों की एवं व्याख्या ग्रन्थों की रचना की । आचार्य श्रीशिवशर्म, श्री. चन्द्रर्षि महत्तर, श्रीगर्गर्षि, श्री अभयदेवसूरि, श्रीजिनवल्लभगणि, श्रीदेवेन्द्रसूरि आदि कर्मवाद - विषयक शास्त्रों के ज्ञाताओंने कर्मवादविषयक मौलिक शास्त्रों का निर्माण किया । इस प्रकार अनेकानेक आचार्यवरोंने जैन आगमिक एवं औपदेशिक प्रकरण, तीर्थङ्कर आदि के संस्कृतप्राकृत चरित्र और कथाकोश, व्याकरण-कोश - छन्द- अलङ्कार - काव्य - नाटक - आख्यायिका आदि विषयक साहित्यग्रन्थ, स्तोत्रसाहित्य आदि का विशाल राशिरूप में निर्माण किया है । अन्त में कितनेक विद्वान् महानुभाव आचार्य एवं श्रावकवरोंने चालू हिंदी, गूजराती, राजस्थानी आदि भाषाओं में प्राचीन विविध ग्रन्थों का अनुवाद और स्वतंत्र रासादि साहित्य का अति विपुल प्रमाण में आलेखन किया है। इस प्रकार आज पर्यन्त अनेकानेक महानुभाव महापुरुषोंने जैन वाङ्मय को समृद्ध एवं महान् बनाने को सर्वदेशीय प्रयत्न किया है; जिससे जैन वाङ्मय सर्वोत्कृष्टता के शिखर पर पहुंच गया है ।
इस उत्कृष्टता के प्रमाण का नाप निकालने के लिये और इसका साक्षात्कार करने के लिये आयत गज भी अवश्य चाहिये । अभिधान राजेन्द्रकोश का निर्माण करके सूरिप्रवर श्री राजेन्द्रसूरि महाराजने जैन वाङ्मय की उत्कृष्टता एवं गहराई का नाप निकालने के लिये यह एक अतिआयत गज ही तैयार किया है ।
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विश्व की प्रजाओंने धर्म, नीति, तत्त्वज्ञान, संस्कृति, कला, साहित्य, विज्ञान, आचार-विचार आदि विविध क्षेत्रों में क्या, कितनी और किस प्रकार की प्रगति एवं क्रान्ति
है ? और समग्र प्रजा को संस्कार का कितना भारी मौलिक वारसा दिया है ?' इसका परिचय पाने के अनेकविध साधनों में सबसे प्रधान साधन, उनकी मौलिक भाषा के अनेकविध व्याकरण एवं शब्दकोश ही हो सकते हैं, विशेषकर शब्दकोश हो ।
प्राकृत भाषा, जैन प्रजा की मौलिक भाषा होने पर भी इस भाषा के क्षेत्र में प्रायोगिक विधान का निर्माण करने के लिये प्राचीन वैदिक एवं जैनाचार्योंने काफी प्रयत्न किया है । और इसी कारण पाणिनि, चंड, वररुचि, हेमचन्द्र आदि अनेक महावैयाकरण आचार्योंने प्राकृत व्याकरणों की रचना की है। आचार्य श्रीहेमचन्द्र का प्राकृत व्याकरण प्राकृत, मागधी, शोरसेनी, पैशाची, चूलिका पैशाची एवं अपभ्रंश भाषा, इन छ भाषाओं का व्याकरण होने से प्राकृत व्याकरण की सर्वोत्कृष्ट सीमा बन गया है। क्यों कि भाषाशास्त्रविषयक अनेक दृष्टि