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श्रीमद् विजयराजेन्द्रसूरि-स्मारक-ग्रंथ जिन, जैनागम आस्तिक वेगपूर्ण आंदोलन उठा। उसका लक्ष्य शिव या विष्णु की भक्ति का प्रचार करना था । दशवीं शती में उनके गीतों का संग्रह हुआ। संगठन की दृष्टि से वैष्णवों की अपेक्षा शैव प्रबल थे। वीर शैव मत की टक्कर जैन धर्म से थी। बौद्ध धर्म अवनत दशा में था। ऐतिहासिक विद्वान् इस्लाम और इसाई धर्म के भारत प्रवेश की भी कल्पना करते हैं। फिर भी उस काल में धार्मिक सहिष्णुता थी। एक ही घर में विभिन्न-विश्वास के लोग रह सकते थे। धर्म में मंदिर और भक्ति की प्रथा थी। दार्शनिक चिन्तन समृद्ध था। भक्ति के आचार्य उसी युग में हुये । संस्कृत-साहित्य के सिवा दक्षिणी भाषाओं का साहित्य भी बनने लगा था । संस्कृत में ऐतिहासिक चरित्र काव्यों की धूम थी। जहां तक आलोच्य साहित्य का संबंध है, उसमें पौराणिक वस्तु का ग्रहण अधिक है। काव्य-सिद्धान्तों के लिए अप० कवियों के उपजीव्य दन्डी और भामह हैं । वस्तुसंघटन में संस्कृत प्राभृत काव्य-परम्परा का प्रभाव भी है। अन्य उपादान और विवरण के लिए मुख्य स्रोत है राजसिद्धान्तमयी । युगचेतना से यह साहित्य एकदम अछूता नहीं। राजपूत शासकों की राजनीति, स्वभाव, विद्यानुराग, आदि गुणों को इस साहित्य के कथा-नायकों के जीवन से आंका जा सकता है। इस युग में धर्म आडंबरपूर्ण था । राजा का धार्मिक होना आवश्यक था । धर्म राज्य से विस्तार चाहता था, और राज्य धर्म से प्रेरणा । अंतिम काल में यह साहित्य दरबार में पहुंचने लगा था।
अपभ्रंश के कवियों का जीवन पूर्णतः सामाजिक था। उनकी सभी रचनायें प्रामाणिक हैं। बौद्ध स्फुट कवियों की जीवनी अवश्य अंधकार में है। चाहे प्रबन्ध कवि हों या मुक्तक, सभी का उद्देश्य धार्मिक या सांस्कृतिक है। इस साहित्य के तीन भाग हैं । प्रबन्ध, खण्ड और काव्य । प्रबन्ध काव्य के दो भेद हैं, पुराण काव्य और चरित्र काव्य । इनमें अन्तर यह है कि एक में अलौकिकता है तो दूसरे में लोकतत्व, एक में विस्तार है तो दूसरे में संक्षेप, एक में अवान्तर प्रसंगों और कथाओं की भरमार है तो दूसरे में कथावस्तु यथासंभव सुनियोजित है । एक में धार्मिक और पौराणिक रूढियों की प्रचुरता है, दूसरे में अपेक्षाकृत कम है। एक वस्तुतत्त्व असम्बद्ध है, दूसरे में सम्बद्ध । चरित्र काव्य में भी दो भेद हैं, धार्मिक और सामाजिक । इनमें पौराणिक और धार्मिक रूढ़ियों की अपेक्षा काव्य रूढ़ियां अधिक हैं। जैसे मंगल-विधान, ग्रन्थ-रचना के उद्देश्य का उल्लेख, आत्मविनय, सज्जनदुर्जन-वर्णन, कथा के मध्य में स्तुति या प्रार्थना, अंतिम पुष्पिका में कवि का आत्मपरिचय और श्रोता-वक्ता शैली। धार्मिक अतिरंजना के अनुरोध से अलौकिक तथ्यों की योजना प्रायः इनमें दिखाई देती हैं। इन चरित्र काव्यों में धर्म के साथ सामाजिक संमिश्रण का अन्तरभाव होता है । रामचरितमानस और पद्मावत भी वस्तुतः हिन्दी के चरित्र काव्य हैं। आचार्य शुक्लने इन्हें रचना