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और जैनाचार्य
अपभ्रंश साहित्य का मूल्यांकन ।
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प्रधान माना है । पर यह समीचीन नहीं। क्योंकि उनमें मुख्य कार्य की समाप्ति के बाद भी कथा चलती रहती है। इनमें कार्य-कारण-योजना खोजना व्यर्थ है । 'आत्मविनय' की परम्परा साहित्य में कई कारणों से है। १ - धार्मिकता के कारण गुरुपरम्परा का उल्लेख आवश्यक था, २ - लोक भाषा में रचना होने से और ३ - संस्कृतज्ञों के उपहास से बचने के लिए। दुर्जन के ये कवि तीन अर्थ करते हैं - ( १ ) जो उनकी कविता में अरुचि रखते हैं । (२) कुछ लोगों का स्वभाव ही दुष्ट होता है और (३) स्फुट कवियोंने असामाजिक व्यक्ति को दुर्जन कहा है । अपभ्रंश प्रबन्ध काव्य में गीत तत्त्व है। कथा मध्य में आये हुए प्रार्थनागीतों से यह प्रमाणित है । इन में अलंकरण, तन्मयता और उपास्य के प्रति दीनता है । इस युग में श्रीकृष्ण के जीवन को लेकर धवल गीत आदि काफी प्रचलित थे । पउमचरिय में श्रीराम दरबार में नट बन कर चारण -गीत गाते हैं । नायिकाओं के रूप-चित्रण और लीला - विलास के वर्णन में विशालता है । धार्मिक चरित काव्यों में पौराणिकता और धर्मानुरूप सामाजिकता होती है, जब कि रोमांटिक काव्यों में नायक के रोमांटिक कार्यों का अतिरंजित आलेखन रहता है । चलते कथानक में आध्यात्मिक संकेत की प्रवृत्ति भी इन काव्यों में है । उदाहरण के लिए जसहर चरिउ में नायक जब पत्नी के कक्ष में जाता है, तब कवि सात मूमियों का उल्लेख करता है | हिन्दी कवि जायसी भी ऐसा करते हैं । परवर्ती बहुत से रासो ग्रन्थों में भी यही बातें हैं । अतः रासो नाम देख कर सभी को गेय मान लेना ठीक नहीं है । मेद केवल यह है कि शास्त्रों में आध्यात्मिक भक्ति का स्थान राजभक्ति ले लेती है । श्रीराम और श्रीकृष्ण कथा का जो रूप इस साहित्य में है, वह थोड़ा हिन्दू कथा से भिन्न है । खण्ड काव्य के रूप में केवल संदेशरासक ही उपलब्ध है। इसमें घटना नहीं, उसकी प्रतिक्रिया भर है। अधिकतर कविकल्पना की क्रीड़ा है। डा. हजारीप्रसादने इसे गेय माना है । पर यह ठीक नहीं। मुक्तक के दो भेद हैं, गीतमुक्तक और दोहामुक्तक । गीतमुक्तक प्रबन्ध काव्यों और पदों में मिलते हैं। गेय रूप में उपलब्ध गीत सामूहिक गान के लिए हैं। जैसे चर्चरी और उपदेश, रसायन - रास । मुक्तकस्वरूप की दृष्टि से दोहा दो प्रकार का है - कोष और स्फुट । दोहा कोष भी दो तरह का है । एक में प्रवृत्ति है, जबकि दूसरे में उम्र अध्यात्म । विषय की दृष्टि से स्फुट दोहा-काव्य तीन प्रकार का है— शृंगार, वीर तथा नीति वा धर्मपरक । इनके अतिरिक्त संदर्भ और इतिवृत्तमूलक मुक्तकों के उदाहरण भी अपभ्रंश में उपलब्ध हैं । सावयदोहाकार को छोड़ कर सभी मुक्तक कवि उम्र अध्यात्मवादी हैं । प्रबन्ध कवि प्रवृत्तिमूलक है । बाह्य उपासना और कर्मकांड का विरोध ये मुक्तक कवि करते हैं। कोरा शास्त्रीय ज्ञान इन्हें स्वीकार्य नहीं । अधिकांश सिद्ध कवियों की शैली साधनात्मक हैं, जबकि जैन कवियों की भावात्मक । पर साधनात्मक शैली का प्रभाव इन पर भी कहीं कहीं है।