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और जैनाचार्य अपभ्रंश साहित्य का मूल्यांकन ।
४९७ १२ वीं के अनन्तर १३ और १४ वीं सदियों में उत्तर भारत में जो साहित्य उपलब्ध है उसमें अपभ्रंश का प्रभाव स्पष्ट है; अतः वह हिन्दी-साहित्य का आदिकाल होने की अपेक्षा अपभ्रंश का अंतिम अंतिम काल है । अधिक से अधिक उसे मिश्रित काल कहा जा सकता है । यह इस लिए भी आवश्यक है कि इस साहित्य का जैसे हिन्दी से संबन्ध है वैसे ही अन्य उत्तर भारतीय आर्षभाषाओं से भी है। इस काल के लिए हिन्दी-साहित्य के इतिहासलेखक सिद्ध-सामन्त-काल, आदि काल, वीरगाथा काल, आदि नाम सुझाते हैं, पर वास्तव में ७ से १२ शती तक अपभ्रंश काल मानना ही संगत है । भारतीय इतिहास का यह रजपूत-काल है।
___ सम्राट हर्ष की मृत्यु के बाद उत्तर भारत की राजनीति डगमगा उठी। कन्नौज को लेकर संघर्ष मच गया । अंत में प्रतिहारोंने उसे ले लिया। दक्षिण में राष्ट्रकूट वंश प्रबल हो उठा। गुर्जर प्रतिहारों से उनकी सदैव ठनी रही। इससे राजपूत कमजोर हुए । उत्तरार्ध में गूजरात में सोलंकी वंश के शासन की जड़ जमी । इनके अतिरिक्त चौहान, चेदी, गहड़वाल, चंदेले भी प्रमुख रहे । हर्ष के युग की हूण जाति भारतीय समाज में खप चुकी थी, और उसीके मिश्रण से जो जातियां उठीं वे सशक्त थीं; पर वे मिथ्याभिमानी, संवर्षप्रिय और राष्ट्रीय आदशों से परे थीं। उस युग की सब से बड़ी घटना है, यवन-आक्रमण । सन् ७११ में मुहम्मद बिन कासिमने देवल जीत लिया था, और एक ही साल में समूचा सिन्ध उसके कब्जे में आ गया। दूसरा हमला मुहम्मद गजनवी के नेतृत्व में ११ वीं सदी के प्रारम्भ में हुआ। सन् १०२६ में सोमनाथ की ऐतिहासिक लूट के बाद पंजाब दूसरी अधीनता में चला गया । तीसरा यवन आक्रान्ता था, मुहम्मद गोरी। पहले उसे हारना पड़ा, पर पृथ्वीराज को हरा कर वह मध्य-प्रदेश के भीतरी अंचल में घुसता गया। जयचंद को हारते ही बना । अब उसे विहार-बंगाल के विजय में देर नहीं लगी; क्यों कि ये प्रान्त गहड़वाल और सेन वंशों की आप सी लड़ाईयों में पहले ही वीरान हो चुके थे। इतनी बड़ी अभाग्यपूर्ण घटना का अलोच्य साहित्य में उल्लेख न होने के चार कारण हैं-१-लेखकों का राजनैतिक घटनाओं के प्रति सचेत न होना, २-सांस्कृतिक दृष्टि से इस घटना का प्रभावहीन होना, ३-जिन प्रदेशों में यह साहित्य रचा गया वे उस आक्रमण से अछूते थे और ४-कवियों की दृष्टि का धार्मिक होना । सामाजिक स्थिति बदल रही थी। दक्षिण के राजघरानों की स्त्रियां संगीतादि के सार्वजनिक उत्सव में भाग लेती थीं। ब्राह्मण के प्रति चरित्र के कारण श्रद्धा थी । व्यापार, खेती और किसानी राजसेवा की अपेक्षा सम्मानित समझी जाती थीं। तामिल देश में एक