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श्रीमद् विजयराजेन्द्रसूरि - स्मारक - प्रथ काममभूदेकं लोकं धर्मकर्मणः । देशेऽत्र गौर्जरख्याते, विद्वता जिननिर्जरे ॥ अणहिल्लपत्तने रम्ये, कुलजोऽभवत् । काभिधो महामानी, श्वेतांशुकमताश्रयी ॥ दुष्टात्मा दुष्टभावेन कुपितः पापमण्डितः । तीव्रमिथ्यात पाकेन कामतमकल्पयतु |
जिन, जैनागम
( दिगम्बर यह समीक्षा पृ. १३ )
दिगम्बर ग्रन्थ कामतनिराकरण जो सुमतिकीर्त्तिने कोकादा नगर में सं. १६२७ में बनाया, उस में लिखा हैः
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अणहिलपुर पाटण गुजरात, महाजन वसह चउरासी न्यात | लघु सारखी न्याते पोरवाड़, लोको सेठि लीहो छिघाड़ ॥ ग्रंथसंख्या नई कारणइ बढ्यउ, जैनयति सुं बहु चिड़भडयउ । लोके लहे कीधा भेद, धर्म तथा उपजाया छेद ||
शास्त्र जाणे श्वेताम्बर तणा, कालइ बल दीघा आपणा । प्रतिमा पूजा छेद्या दान, धर्मतणी तिण कीधी हाण || संवत पर सतावीस, लुंका मत ऊपना कहीस | पडत काल थी आव्या फरंग, फोज रोग हवो नरभंग || इसके बाद तो सं. १६२९ में धर्मसागरोपाध्यायने प्रवचनपरीक्षा एवं गुणविनय वाचक ने लंका मत निराकरण चौपाई में बहुत विस्तार से खण्डन किया है । हम लेखविस्तारभय से पिछले ग्रन्थो में जो ज्ञातव्य मिलता है उसको भविष्य के लिए रख कर यहां केवल ब्रह्मकविरचित जिनप्रतिमा स्थापन ग्रन्थ के आधार से थोड़ा परिचय प्रस्तुत कर रहे हैं । यह ग्रन्थ सं. १६०७ के कार्तिक सुदि १३ को रचा गए है। इस में तेरह अधिकार हैं । उन में लंका मत की उत्पत्ति, पारखमत और नयेलुंके का मान्यताभेद आदि विषय विशेष महत्त्व के हैं । लुंकामत - उत्पत्ति बहलाते हुए कहा गया है
संवत पर बतीस गयउ, एक भेदमति तिहांथी थयउ । अहमदाबाद नगर मंझारि, लुंकउ महतो वसई विचारि ॥ अक्षर तसु आवडता मला, ए छह मोटी पहली कला । लिखत पुस्तक घृणा पोसालि, करतउ आजीविका संभालि ||