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भीम विजयराजेन्द्रसूरि-स्मारक-ग्रंथ जिन, जैनागम " श्रोतव्यश्चापि मन्तव्यः साक्षात्कार्यश्च भावनः । जीवो मायाविनिर्मुक्तः स एव परमेश्वरः ॥ ११ ॥ श्रोतव्योऽध्ययनैरेव मन्तव्यो भावनादिना ।
निदिध्यासनमस्यैव साक्षात्काराय जायते ॥ १२ ॥" कर्मकाण्डरूप २७ वें अध्याय के १५ वें श्लोक में उपाध्यायजीने सहज ही उदार भाव से 'जिन' और 'शिव' दोनों की एकरूपता का समर्थन किया है । समर्थन की उनकी शैली अद्भुत और निराली है । वे कहते हैं कि
" एवं जिनः शिवो नान्यो नाम्नि तुल्येऽत्र मात्रया ।
___ स्थानादियोगाजशयोनवयोश्चैक्यभावात् ॥ १५॥" अर्थात्-जिन का 'ज' और 'इ' तथा शिव का 'श' और 'इ' दोनों का तालव्यस्थान है, तथा जिन का 'न' और शिव का 'व' दोनों का दंतव्यस्थान समान है और उनके अनुनासिक स्थान भी समान हैं। इस तरह 'जिन' और 'शिव' दोनों समानार्थी हैं और शब्ददृष्टि से भी दोनों समान हैं। इस लिये 'जिन' और 'शिव' के बीज में किसी भी तरह की भिन्नता उपस्थित करने की नही है । उनकी यह तुलना मौलिक एवं अपूर्व, अश्रुत भांति की है और वाचक वर्ग को सहज ही कुतुहलदायी भी है, ऐसा हमारा अनुमान है।
इसी ही अध्याय के १८ वे श्लोक में श्वेताम्बर की तरह दिगम्बर मुनि की पवित्रता को भी वे मानते हैं और उसे हृदयातीत करने को हमको सूचित करते हैं । उनका कहना हैं कि बाह्यलिङ्ग मुख्य नहीं, गौण है । जहाँ पवित्रता का स्थान है वहाँ साधारणतया साधुता है ही और वह वंदनीय भी है।
" श्वेताम्बरधरः सौम्या शुद्ध कश्चिन्निरम्बरः ।
कारुण्य पुण्यः सम्बुद्धः शान्तः शान्तः शिवो मुनिः ।। १८ ॥" ९ वें अध्याय के श्लोक १३ और १४ में वे बताते हैं कि जिनकी ऐसी धारणा है कि लक्ष्मी और सरस्वती दोनों में वैमनस्य है, उनकी धारणा मूलभूत ही निराधार है । लक्ष्मी ज्ञानधर्म को ग्रहण करनेवाले पुरुष के ही वश होती है। क्योंकि ज्ञानी निष्पाप है, निष्पाप होने से ज्ञानी पुरुषोत्तमरूप होते हैं । लक्ष्मी ऐसे पुरुषोत्तमस्वरूप सरस्वतीसंपन्न ज्ञानी को ही निःसंदेह उपलब्ध होती है । लक्ष्मी और सरस्वती के बीच में वैमनस्य है, ऐसा अनुमान करना योग्य नहीं है