________________
और जैनाचार्य लुंकाशाह और उनके अनुयायी।
४७५ जे करता महात्मा वखाण, ते सांभलतउ बुद्धि विनाण । अक्षर खंडो जाणइ अर्थ, गाथा भणवह तेह समर्थ ॥ इक दिवस कांई लिखियउ कूड़, थई महातमा ओलंमा मूड़ । अति कहतां रीसाणउ घणउ, फल देखादि क्रोधह तणउ ॥ सकल जोधमांहि मोटो क्रोध, तेह थकइ न लहइ प्रतिबोध । क्रोध वसइ जे भाषइ लवइ, भगवंत कहह कूड़ी हुबह ॥ तउ पणि पोसलिइ नित जाइ, कहिवा आजीविका उपाइ। मनमोहे चिन्तइ अवसर लही, भिक्षा भांजउ एहनी सही । तउ देखीजे हरखे आचार, ते गाथा नउं करइ उद्धार । संघ अर्थ मेली अति घणउ, संग तजह ते लिखिवा तणउ ॥ मिलिउ तिसि तेहनइ लखमसी, तिणे बिहुं बात विमासी इसी ।
सूत्रे बोल्यउ जे आचार, ए पासिते नहीं लिगार ॥
उपर्युक्त समस्त उद्धरणों का समुच्चय रूप में भावार्थ यह है कि सं. १४७५ ( वीर संवत् १९४५) के आसपास लुकासाह का जन्म हुआ। उनकी जाति पोरवाड़ थी। पहले घर की अवस्था अच्छी हो सकती है, पर फिर आर्थिक कमजोरी आ जाने से उन्होंने अपनी आजीविका ग्रन्थों की नकलें कर चलाना आरंभ किया। उनके अक्षर सुन्दर थे । यति महात्माओं के पास सं. १५०८ के लगभग विशेष संभव है कि अहमदाबाद में लेखन का काम करते हुए कुछ विशेष अशुद्धि आदि के कारण उनके साथ बोलचाल हो गई। वैसे व्याख्यानादि श्रवण द्वारा जैन साध्वाचार की अभिज्ञता तो थी ही और यति महात्माओं में शिथिलाचार प्रविष्ट हो चुका था। इस लिए जब यतिजीने विशेष उपालम्भ दिया तो रुष्ट हो कर उनका मानभंग करने के लिए उन्होंने कहा कि शास्त्र के अनुसार आपका आचार ठीक नहीं है एवं लोगों में उस बात को प्रचारित किया। इसी समय पारख लखमसी उन्हें मिला और उसके संयोग से यतियों के आचारशैथिल्य का विशेष विरोध किया गया। जब यतियों में साधु के गुण नहीं हैं तो उन्हें वन्दन क्यों किया जाय ! कहा गया। तब यतियोंने कहा-"वेष ही प्रमाण है । भगवान की प्रतिमा में यद्यपि भगवान के गुण नहीं फिर भी वह पूजी जाती है !" तब लुकाशाहने कहा कि-"गुणहीन मूर्ति को मानना भी ठीक नहीं और उसकी पूजा में हिंसा भी होती है । भगवानने दया में धर्म कहा है" इस प्रकार अपने मत का प्रचार करते हुए कई वर्ष बीत गये । सं० १५२७ और सं० १५३४ के बीच विशेष संभव सं० १५३०-३१ में भाणा नामक व्यक्ति स्वयं दीक्षित हो कर इस मत का सर्व प्रथम मुनि हुआ। इसके बाद