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और जैनाचार्य
देवेन्द्रसूरिकृत नव्य-कर्मग्रन्थ । स्वरूप बताने के लिए आचार्य ने प्रारंभ में ज्ञान का निरूपण किया है । ज्ञान के पांच मेदों का संक्षेप में निरूपण करते हुए तदावरणभूत कर्म का सदृष्टान्त निरूपण किया है। इसी प्रकार दर्शनावरण कर्म के नव भेदों में पांच प्रकार की निद्राएं भी समाविष्ट हैं । इसे बताते हुए आचार्यने इन निद्राओं का मनोरंजक वर्णन किया है । तदनुसार सुख और दुःख के जनक वेदनीय कर्म, श्रद्धा और चारित्र के प्रतिबन्धक मोहनीय कर्म, जीवन की मर्यादा के कारणभूत आयु कर्म, जाति आदि विविध अवस्थाओं के जनक नाम कर्म, उच्च और नीच गोत्र के हेतुभूत गोत्रकर्म एवं प्राप्ति आदि में बाधा पहुंचानेवाले अन्तराय कर्म का संक्षेप में वर्णन किया है । अन्त में प्रत्येक प्रकार के कर्म के कारणों पर प्रकाश डाला गया है। प्रस्तुत कर्मग्रंथ में ६१ गाथाएं हैं। कर्मस्तव
प्रस्तुत ग्रंथ में कर्म की चार अवस्थाओं का विशेष विवेचन किया गया है। ये अवस्थाएं हैं-बन्ध, उदय, उदीरणा और सत्ता । इन अवस्थाओं के वर्णन में गुणस्थान की दृष्टि प्रधान रखी गई है-बन्धाधिकार में आचार्यने चौदह गुणस्थानों के क्रम को लेते हुए प्रत्येक गुणस्थानवी जीव की कर्मबन्ध की योग्यता-अयोग्यता का विचार किया है। इसी प्रकार उदय आदि अवस्थाओं के विषय में भी समझना चाहिए। गुणस्थान का अर्थ है आत्मा के विकास की विविध अवस्थाएँ । इन्हीं अवस्थाओं को हम आध्यात्मिक विकासकम कह सकते हैं । जैन परम्परा में इस प्रकार की चौदह अवस्थाएं मानी गई हैं। इन में आत्मा क्रमशः कर्ममल से विशुद्ध होता हुआ अन्त में मुक्ति प्राप्त करता है। कर्मपुंज का सर्वथा क्षय कर मुक्ति प्राप्त करनेवाले प्रभु महावीर की स्तुति के बहाने से प्रस्तुत ग्रंथ की रचना करने के कारण इसका नाम ' कर्मस्तव ' रखा गया है । इसकी गाथा-संख्या ३४ है। बन्ध-स्वामित्व
प्रस्तुत कर्मग्रंथ में मार्गणाओं की दृष्टि से गुणस्थानों का वर्णन किया गया है एवं यह बताया गया है कि मार्गणास्थित जीवों की सामान्यतया कर्मबन्ध-सम्बन्धी कितनी योग्यता है व गुणस्थान के विभाग के अनुसार कर्म के बन्ध की योग्यता क्या है। इस प्रकार इस ग्रंथ में आचार्यने मार्गणा एवं गुणस्थान दोनों दृष्टियों से कर्मबन्ध का विचार किया है। संसार के प्राणियों में जो भिन्नताएं अर्थात् विविधताएं दृष्टिगोचर होती हैं उनको जैन कर्मशास्त्रियोंने चौदह विभागों में विभाजित किया हैं । इन चौदह विभागों के ६२ उपमेद हैं। वैविध्य के इसी वर्गीकरण को ' मार्गणा ' कहा जाता है । गुणस्थानों का आधार कर्मपटल