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भीमद् विजयराजेन्द्रसूरि-स्मारक-ग्रंथ जिन, जैनागम पउमचरिय में कुन्दकुन्द, उमास्वामी आदि के ग्रन्थों का प्रभाँव खोजना असंगत सा है । प्रायः एक ही काल में होनेवाले विभिन्न विद्वानों के साधन-सामग्री और आधार प्रायः समान और बहुधा अभिन्न होते हैं । उन सबही आद्य मन्थकारों का विशेष कर जैनधर्म सम्बंधी तत्त्वों एवं सिद्धान्तों का निरूपण प्रायः समान है। भाषा, शैली, पद्धति आदि के भेद तो हैं, किन्तु मान्यताओं में विशेष अन्तर नहीं है। और उन सबकी आधार भूत सामग्री मौखिक परंपरा से प्राप्त श्रुतागम था। अतः जबतक किसी एक विद्वान् की कृति के निश्चिततया मौखिक अंश किसी दूसरे विद्वान की कृति में पर्याप्तमात्रा में एवं यथावत उद्धृत किये गये न पाये जाँय या उसके मत, ग्रन्थ अथवा नामादि का स्पष्ट उल्लेख न पाया जाय, उनके परस्पर पूर्वापर के विषय में निश्चित निर्णय दे देना युक्तियुक्त नहीं है ।
केवल एकाध बार प्रयुक्त · सियंबर' जैसे शब्दको सम्प्रदायविशेष का सूचक मान "लेना भी भ्रमपूर्ण है । पउमचरिय में श्वेतांबर या दिगम्पर किसी भी सम्प्रदाय का एक भी स्पष्ट संकेत नहीं है । यह तो कहा ही नहीं जा सकता कि संघभेद से पूर्व प्राकृत भाषा में 'सियंवर' शब्द था ही नहीं। और फिर उक्त विभाजन के पूर्व भी जैन संघ में सवस्त्र साधु अर्द्धधालकों आदि के रूप में तो कमसे कम कुछ कालसे विद्यमान थे ही । अतः इस आधार पर भी विमलार्य की तिथि को अमान्य करना असंगत है । वस्तुतः विविक्षित सियंबर शब्द पउमचरिय में किसी सम्प्रदायसूचक अर्थ में नहीं, वरन् अपने सामान्य शाब्दिक अर्थ में ही प्रयुक्त हुआ प्रतीत होता है।
जैकोवी का ही एक तर्क यह भी था कि विमलार्य द्वारा प्रयुक्त वीरनिर्वाण संवत् प्रच. लित, अर्थात् ५२७ ई० पू० का संवत् नहीं था, वरन् महावीर निर्वाण की तिथि के संबंध में किसी भ्रान्त धारणा पर आधारित था । थेरावलियों के अनुसार श्वेतांबर आम्नाय में मान्य महावीर की शिष्यपरंपरा के एवं निन्हवों के इतिहास का विवेचन करते हुए इस विद्वान् ने काल संबंधी कई भूलों का निर्देश किया है और उपरोक्त निष्कर्ष निकाला है। किन्तु उसने महावीर निर्वाण की तिथि संबंधी उस भ्रान्त मान्यता के, या उसके आधार का अथवा उसके अनुसार मानीजानेवाली निर्वाणतिथि का कहीं कोई उल्लेख या स्पष्टी. करण नहीं किया, केवल आनुमानिक संकेत करके अपनी धारणा पुष्ट करली । वह यह भी कहीं नहीं कहता कि पउमचरिय की तिथिसूचक गाथा प्रसिद्ध है या उसमें वी. नि०
३०. अनेकान्त, व. ५, कि. १०-११ पृ. ३३७-३४४. ३१. वही। ३२ परिशिष्ट पर्व, जैकोबी, भूमिका पृ. १८-१९