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और जैनाचार्य विमलार्य और उनका पउमचरियं ।
४४९ प्रमुख प्रमुख महत्त्वपूर्ण घटनाओं की आपेक्षिक दूरी स्मरण रक्खी जाती थी। इसी उद्देश्य से प्राचीन जैन अनुश्रुतियों में निर्वाणोपरान्त कालकी राज्यवंशावलि एवं वंशकालानुक्रम निर्वाण तिथि की अपेक्षा स्मरण रक्खे गये। अस्तु यह हो सकता है कि जिस समय विमलार्यने अपना ग्रन्थ लिखा उन्हें यह अनुश्रुति स्मरण रही की शक संवत् की प्रवृत्ति निर्वाण से ४६१ वर्ष बाद हुई है। उन्होंने भ्रम से ७८ ई० के शक संवत् को ही वह संवत् समझ लिया और क्योंकि उसको बीते उस समय ६८ वर्ष हो चुके थे उन्होंने अपने प्रन्थ की रचनातिथि वी. नि. सं. ५३० (४६१+६९) दे दी। यदि ऐसा हुआ हो तो पउमचरिय की तिथि ७८+६९=१४७ ई० हो सकती है।
कमसे कम यह तो निश्चित है कि विमलार्य अधुना ज्ञात आद्य जैन पुराणकार, जैन रामकथा के आद्य रचयिता, महाराष्ट्री प्राकृत के सर्वप्राचीन महाकाव्यकार तथा जैन साहित्य के आद्य प्रणेताओं में से एक थे। किसी पूर्व प्रन्थ या ग्रन्थ कार का उन्होंने उल्लेख नहीं किया, वरन् अपने साधनों और आधारों को मौखिक परम्परागत श्रुतज्ञान ही सूचित किया। गुरुपरम्परा से प्राप्त अनुश्रुतियें, संक्षिप्त नामावलियें एवं गाथानिबद्ध कथासूत्र ही उनके आधार थे। वाल्मीकि की ब्राह्मणीय रामायण थोड़े काल पूर्व ही प्रचार को प्राप्त होना प्रारंभ हुई थी। उसके द्वारा प्रचारित भ्रामक मान्यताओं का निरसन करने तथा लोक में रामचरित संबंधी भ्रम को न बढ़ने देने की भावना ही उनको ग्रन्थरचना में प्रधान प्रेरक थी । इस प्रकारका भ्रामक प्रचार करनेवालों को उन्होंने — कुकह ' (कुकवि) और उनकी रचनाओंको 'कुलत्थ ' ( कुशास्त्र ) कहकर भर्त्सना की है।
रविषेण (६७६ ई०) के समय से शताब्दियों पूर्व से सुदूर पूर्व के सिंहल, जावा, सुमात्रा, बाली, बोर्निओ, मलय, काम्बुज, चम्मा आदि देशों में भारतीय राज्य एवं उपवि.
३५. णामावलि निबद्ध आयरियपरंपरागयं सव्वं ।
वोच्छामि पउमचरियं अहाणुपुट्वि समासेणं ॥ १/८ एयं वीरजिणेण रामचरियं सिद्धं महत्थं पुरा। पच्छा खंडलभूइणा उ कहिय सीसाणधम्मासयं ॥ भूओ साहुपंरपराए सयलं लोए ठियं पायउं ।
एत्ताहे विमलेण सुत्तसहियं गाहानिबद्धं कयं ॥ इत्यादि. ३६. अलियं पि सव्वमेयं उववत्ति विरुद्धं पच्चयगुणेहिं।
न य सद्दहति पुरिसा हवंति जे पंडिया लोए ॥ १/११७. तह विवरीय पयत्थं कहहि रामायणं रइयं । इत्यादि.