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और जैनाचार्य
श्रीआर्यरक्षितसूरि। पुनः एक दिन अवसर पाकर आर्यरक्षितने वज्रस्वामी से निवेदन किया
अथापृच्छत् प्रभो यामि, भ्राता मामाह्वयत्यलम् । "भगवन् ! मुझे देखने के लिये मेरे सभी सम्बन्धी उत्सुक हो रहे हैं । यह देखिये फल्गुरक्षित मेरा अनुज मुझे बुलाने आया है। कृपया मुझे एक बार जाने की अनुमति दे दीजिये। मैं तत्काल ही वहां से पुनः लौटकर अपने अध्ययन में रत हो जाऊंगा।" ___वज्रस्वामीने आदेश देते हुए कहा-" वत्स ! यदि तुम जाना ही चाहते हो तो जाओ! तुम्हें आशीर्वाद देता हूं कि तुम्हारा अधीतज्ञान तुम्हारी आत्मा के लिये कल्याणकारी हो।"
आर्य वज्रस्वामी की आज्ञा प्राप्त कर आर्यरक्षित 'दशपुर ' की ओर विहार करने के पूर्व अपने दीक्षागुरु आचार्य तोसलीपुत्र के दर्शनार्थ उनके समीप गये । आचार्यदेवने अपने शिष्य आर्यरक्षित को सर्वथा योग्य समझकर आचार्य पद दे दिया एवं दूसरे भव की साधना में लग गये।
आचार्य होकर आर्यरक्षितने दशपुर की ओर विहार किया। नगर के समीप पहुंचते ही फल्गुरक्षितने प्रथम जाकर माता को शुभ सन्देश दिया। अधिक दिवसों के पश्चात् अपने पुत्र के आगमन का शुभसंवाद सुनकर मा रुद्रसोमा अत्यधिक प्रसन्नता से पुलकित हो उठी एवं पुत्र के स्वागत में जुट गई । जब पिता सोमदेव एवं माता रुद्रसोमा अन्य सम्बन्धियों एवं नागरिकों के साथ नगर के बालोद्यान में पहुंचे तो वहां आर्यरक्षित के जैनसाधु के वेश में दर्शनकर वे दोनों मुग्ध से रह गये।
रुद्रसोमा प्रारम्भ से ही जैनमतावलम्बिनी श्राविका थी। अपने पुत्र के दीक्षित मुनिवेश में दर्शन कर उसके नयनो में हर्षाश्रु भर आये और वह अपने आप को धन्य मानने लगी।
आचार्य आर्यरक्षितने अपने माता, पिता एवं अन्य जनसमुदाय को ऐसा प्रभावोत्पादक आत्मकल्याणकारी मंगलमय उपदेश दिया कि सभी दीक्षित होने के लिये प्रार्थना करने लगे।
और-प्रव्राज्य स्वजनान् सर्वान् , सौजन्यं प्रकटीकृतम् ॥
आर्यरक्षितने माता, पिता, भार्या तथा अन्य पारिवारिक जनों एवं दूसरे भाविक मनुष्यों को दीक्षा देकर मुनिव्रत दे दिया एवं इस प्रकार अपनी सज्जनता का शुभ परिचय देते हुए वह कार्य किया जो प्रायः विरले ही जन किया करते हैं। ___ जैनदर्शन के पूर्वाचार्यों के इतिहास का सूक्ष्म अध्ययन करने पर यह स्पष्टतया ज्ञान