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भीमद् विजयराजेन्द्ररि-स्मारक-ग्रंथ जिन, जैनागम होता है कि आचार्य आर्यरक्षितसूरि पूर्वाचार्यों में महान् परमोज्वल यशस्वी एवं सर्वतोमुखी प्रतिभासम्पन्न जैनाचार्य हो गये हैं। निश्चित ही वे अपने समय के उद्भट, अद्वितीय विद्वान् एवं तत्त्ववेत्ता आदर्श आचार्य थे। उनकी इस अलौकिक विद्वत्ता एवं अभूतपूर्व देवोपम जीवन से मालवप्रदेश के प्राचीन दशपुर ( मन्दसोर ) नगर को वस्तुतः गौरवशाली महान् पद प्राप्त हुआ है।
आचार्य आर्यरक्षितसूरिने न केवल अपने ही क्षेत्र में, अपितु यत्र तत्र सर्वत्र विचरण करते हुए जहाँ-जहाँ समाज अज्ञानान्धकार में लिप्त हो कुपथगामी हो रहा था, या पूर्व से ही था, उसको विशुद्ध जैनदर्शन का प्रकाशदान कर सन्मार्ग प्रदर्शित किया। जिस पर चलकर असंख्य जनसमुदायने आत्मकल्याण किया । उस समय की सुषुप्ति को जागृति में परिणत कर समाज में श्रावकों की संख्या में आचार्यप्रवरने जो अभिवृद्धि की वस्तुतः वह असाधारण ही थी । एक वार जो भी व्यक्ति आपके सम्पर्क में आते कि उन्हे सहसा ज्ञान का चमत्कारपूर्ण दिव्यप्रकाश प्राप्त होता था।
ततस्तानि प्रबुद्धानि श्रावकत्वं प्रपेदिरे ।। वे जागृत हो कर श्रावकत्व ग्रहण करते । साधुत्व एवं आचार्यत्व को पर्याप्तरीत्या सार्थक करते हुए आचार्य आर्यरक्षितसूरिने अपने स्वयं का कल्याण करते हुए 'स्व' में ही पर के दर्शन कर समुदार वृत्ति से विभिन्नरीत्या जो लोककल्याण किया वह अपने समय का एक अनुपम आदर्श ही है।
वैसे आर्यरक्षितसूरि का शिष्यसमुदाय भारी संख्या में था ही, किन्तु उनके मुख्य शिष्यों के सम्बन्ध में कहा है कि
तत्र गच्छे च चत्वारो, मुख्यास्तिष्ठन्ति साधवः ॥ आद्यो दुर्बलिका पुष्पो, द्वितीयः फल्गुरक्षितः।
विन्ध्यस्तृतीयको गोष्ठा-माहिलश्च चतुर्थकः ॥ उनके गच्छ में मुख्यतया आर्यरक्षितसूरि के चार शिष्य थे-दुर्बलिकापुष्प, फल्गुरक्षित, विन्ध्य एवं गोष्ठामाहिल। ये चारों ही चारों दिशाओं में प्रसिद्धिप्राप्त विद्वान् एवं तत्त्वज्ञानी थे। इनकी विद्वत्ता के सामने किसी भी विषय का कोई भी शास्त्रपारङ्गत धुरन्धर पण्डित शास्त्रार्थ के लिये साहस नहीं कर सकता था। कहते हैं कि एक समय गोष्ठामाहिल ने मथुरा में किसी विद्वान् को शास्त्रार्थ में ऐसा पराजित किया कि वह इनकी मनस्विता पर मुग्ध हो अपने अहंत्व का परित्याग कर इनका शिष्य बन गया। इससे गोष्ठामाहिल के