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और जैनाचार्य
श्री आरक्षितसूरि ।
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" आर्यरक्षित ! तेरे विद्याध्ययन से मुझे तब हार्दिक सन्तोष एवं परम प्रसन्नता होगी जब तू जैनदर्शन एवं उसके साथ ही विशेषतः दृष्टिवाद का समग्र अध्ययन कर लेगा । " मा की मनोभावना एवं उसके आदेशानुसार आर्यरक्षित इक्षुवाटिका में गये, जहां आचार्य श्री तोसलीपुत्र विराजमान थे एवं उनसे निवेदन किया कि
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भगवन् ! युष्माकं सन्निधौ दृष्टिवादमध्येतुमागमम् !”
" मैं दृष्टिवाद का अध्ययन करने के हेतु आप की शरण में आया हूं ! "
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आचार्य तोलीपुत्र आर्यरक्षित की तीव्रतर मेघा, प्रखरपाण्डित्य एवं सर्वतोऽधिक विनयशीलता देख कर यह अनुमान लगाया कि निश्चय ही यह जैनदर्शन का अध्ययन कर आत्मकल्याण के साथ ही जैनशासन की उन्नति में सहायक सिद्ध होगा । उन्होंने आर्यरक्षित को सम्बोधित करते हुए कहा - " दीक्षयाऽघीयते हि सः- वत्स ! दृष्टिवाद का अध्ययन दीक्षा ग्रहण करने के पश्चात् ही किया जाता है, अतएव यदि तुम दीक्षा ग्रहण करो तो मैं तुम्हें सहर्ष दृष्टिवाद का अध्ययन करादूंगा । अन्यथा नहीं । इसीलिये कि जैनदीक्षा के बिना ष्टवाद का अध्ययन सर्वथा असम्भव ही है ! "
" ज्ञानप्राप्ति एवं विशेषतः मातृहृदय को सन्तुष्ट करने के हेतु दृष्टिवाद का अध्ययन करने के लिये मुझे आप की आज्ञा शिरोधार्य है । भगवन् ! एवं मैं जैन दीक्षा ग्रहण करने के लिये प्रस्तुत हूं। मुझे शीघ्र ही दीक्षित कर ज्ञान-दान दीजिये प्रभो !" आर्यरक्षितने आचार्य तोसलीपुत्र से करबद्ध हो कर निवेदन किया !
विशुद्ध ज्ञान-पिपासु मेघावी आर्यरक्षित की प्रार्थना स्वीकार करते हुए आचार्य तोसलीपुत्रने उन्हें दीक्षा देदी एवं अन्य नगर में विहार कर दिया। वहीं उन्होंने आर्यरक्षित को जप, तप, संयम अनेक सद्विधियों के साथ क्रमशः अङ्ग तथा उपान एवं सूत्र तथा कतिपय पूर्वो का अध्ययन कराया । इसी प्रकार -
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" दृष्टिवादो गुरोः पार्श्वे, योऽभूत्तमपि सोऽपठत् ।
अपने गुरु के समीप जो दृष्टिवाद था उसका भी आर्यरक्षितने समग्र अध्ययन किया ।
इतने से आर्यरक्षित की जैनदर्शन के प्रति बढ़ती हुई ज्ञानपिपासा शान्त नहीं हुई और वे अपने गुरुदेव की आज्ञा से गीतार्थ मुनियों के साथ उज्जयनी पहुंचे। वहां आचार्य भद्रगुप्तसूरि की सेवा में उनके स्वर्गगमन तक उनके द्वारा आदेश दिये गये नियमों का पालन करते हुए आर्य वज्रस्वामी के समीप पहुंचे एवं उनके अन्तेवासी बनकर विद्याध्ययन करने लगे ।