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श्रीमद् विजयराजेन्द्रसूरि-स्मारक-प्रथ जिन, जैनागम था जिसका नाम था सोमदेव । सोमदेव की रुद्रसोमा नाम की पत्नी थी। इनके दो पुत्र थे-आर्यरक्षित एवं फल्गुरक्षित । प्रासङ्गिक कथानक का उल्लेख करते हुए 'नन्दीसूत्र' में इस प्रकार कहा गया है कि
" आस्ते पुरं दशपुरं, सारं दशदिशामिव । सोमदेवो द्विजस्तत्र, रुद्रसोमा च तत्प्रिया ॥
तस्यार्यरक्षितः सूनुरनुजः फल्गुरक्षितः ॥" पुरोहित सोमदेवने-जो स्वयं उच्चकोटि के विद्वान् थे, अपने ज्येष्ट पुत्र आर्यरक्षित को अपनी अध्ययन की हुई सम्पूर्ण विद्याओं का अध्ययन कराया। किन्तु कुशाग्रमति मेधावी आर्यरक्षित इतने ही से सन्तुष्ट नहीं हुर और अधिक विद्याध्ययन के हेतु पाटलीपुत्र चले गये । वहां उन्होंने लगन एवं तन्मयता के साथ वेद उपनिषद् आदि चतुर्दश विद्याओं का अध्ययन किया ।
चतुर्दशापि तत्रासौ विद्यास्थानान्यधीतवान् ।
अथागच्छद् दशपुरं, राजाऽगात् तस्य सम्मुखम् ।।+ ॥१॥ यहां से चतुर्दश विद्याओं का अध्ययन करने के पश्चात् जब आर्यरक्षित अपने गुरु का आशीर्वाद लेकर अपनी जन्मभूमि दशपुर ( मन्दसोर) लौट कर आये, एवं उनके शुभा. गमन का सन्देश जब राजा, पुरोहित एवं नगरवासियों ने सुना तो सभीने प्रसन्न मन होकर हार्दिक अभिनन्दन के साथ आपका भव्य स्वागत किया।
___आर्यरक्षित अपनी माता रुद्रसोमा को छोड़कर प्रायः समस्त परिवार से मिल चुके थे। वे अधिक उत्सुक हो अपार प्रसन्नता के साथ जब माता के समीप गये एवं प्रणाम किया तो माता चतुर्दशविद्याधीत अलौकिक गुणसम्पन्न आर्यरक्षित जैसे पुत्र का साधारण शब्दों में स्वागत करती हुई कुछ भी न बोल कर मौन हो गई। माता के इस औदासिन्य पर आर्यरक्षित के विज्ञ, किन्तु कोमल, मानस पर वज्राघात-सा हुआ और वे तत्काल ही विनयभरे शब्दों में अपनी माता से निवेदन करने लगे " किं न ते मातस्तुष्टिर्मविद्ययाऽभवत् "
" हे माता ! क्या आप को मेरे अध्ययन से सन्तोष नहीं हुआ !" माता रुद्रसोमाने गम्भीरतापूर्वक उत्तर देते हुए अपने पुत्र से कहा कि
"तुष्याम्यहं दृष्टिवादं, पठित्वा चेत्त्वमागमः ?" +१. विविधतीर्थकल्प पृ. ७० में इसी आसय की पंक्ति इस प्रकार है"आर्यरक्षितोऽपि हि चतुर्दश विद्यास्थानानि तत्रैवाधीत्य दशपुरमागमत् ।"