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श्रीमद् विजयराजेन्द्रसूरि-स्मारक-अंथ जिन, जैनागम पा जाना संभव है, किन्तु महावीर के पांच शताब्दियों के भीतर ही, जब जैन संघ अखंड एवं सुव्यवस्थित था और मौखिक परंपरा के संरक्षण की उत्तम व्यवस्था थी, इस प्रकार के भ्रमों का प्रचलित होना दुष्कर था।
ऐसी स्थिति में सन् ३-४ ई० की तिथि को अमान्य करने में केवल दो ही संभावनाएँ साधक हो सकती हैं । या तो तिथिसूचक गाथा में मलपाठ पंचेव' के स्थान में 'छच्चेव' रहा हो । ग्रंथ की सर्व प्राचीन उपलब्ध प्रति उसकी रचना से लगभग हज़ार-ग्यारहसौ वर्ष उपरान्त की है । इस दीर्घ अन्तराल में ग्रन्थ की अनेक प्रतिलिपियां विभिन्न समयों में बनी होंगी, और किसी भी प्रतिलेखक की भूल से या उसे प्राप्त पाठ के त्रुटित खंडित होने के कारण मूल 'छच्चेव' का 'पंचेव' हो जाना नितान्त संभव है । और इस प्रकार पउमचरिय की रचनातिथि वी. नि. सं. ६३० अर्थात् सन् १०३-४ ई० हो सकती है। किन्तु यह बात निश्चयपूर्वक तभी कही जा सकती है कि जब कोई प्राप्तप्रतिसे प्राचीनतर वा अन्य समकालीन प्रति 'छच्चेव' पाठ को लिये हुए प्राप्त न हो जाय । इस संबंध में यह स्मरणीय है कि यद्यपि ५३० की तिथि के विरुद्ध दिये जानेवाले जितने भी प्रमाण या तर्क हैं वे सबल या सारपूर्ण नहीं है, तथापि निश्चित तथा उसी तिथि का समर्थक प्रमाण भी उक्त एक स्वयं ग्रन्थगत उल्लेख के सिवा अन्य कोई नहीं है।
दूसरी संभावना यह हो सकती है कि पउमचरिय का निर्माण सन् ७८ ई० के शक संवत की प्रवृत्ति के काफी समय बाद हुआ हो । ७८ ई० के पूर्व केवल एक शक संवत प्रचलित था और वीर नि. सं. ४६१ अर्थात् ६६ ई० पू० में कालकाचार्य के प्रयत्न से शकों के सर्वप्रथम उज्जैनी प्रवेश के उपलक्ष में चलाया गया था। किन्तु ७८ ई० में उज्जैनी में शकक्षत्रप चष्टनने एक दूसरा शक संवत प्रचलित किया। सातवाहनोंने भी उसे ही अपना लिया, क्योंकि कुषाण सम्राट् कनिष्क के राज्य का प्रथम वर्ष भी वही था। और कुषाणोंने भी उसी वर्ष से अपना संवत् माना । इस प्रकार दूसरी शती ई० में चार नामों से दो शक संवत् प्रचलित थे। दूसरी शती ई० में ही यति वृषभने अपनी तिलोयपण्णत्ति में वीर निर्वाण से १६१ वर्ष तथा ६०५ वर्ष ५ मास उपरान्त क्रमशः होनेवाले दो शक राजाओं का स्पष्ट उल्लेख किया है। कालकाचार्यकथानक, तित्थोगालीपयन्ना, मेरुतुंगकृत स्थविरावलि
आदि से भी इस कथनकी पुष्टि होती है । उस प्राचीन काल में (२री शती ई. से पूर्व ) सामान्य रीति से किसी संवत् विशेष के अनुसार कालगणना नहीं की जाती थी, वरन्
१४. वही, अध्याय ३, व ४,