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श्रीमद् विजयराजेन्द्रसूरि-स्मारक-ग्रंथ जिन, जैनागम जैन महाराष्ट्री को प्राकृत भाषा का आद्य या प्राचीनतम रूप मानते हैं । अस्तु, विमलार्य के ग्रन्थ की भाषा को अत्यंत प्राचीन मानते हुए भी जो इन प्रारंभिक प्राच्यविदों ने उसे सन् ३०० ई० से पूर्व का स्वीकार करने में संकोच किया उसका एक कारण यह भी है कि वे विद्वान् अपने सीमित साधनों एवं कतिपय रूढ धारणाओं के कारण भारतीय और विशेषकर जैन संस्कृति एवं साहित्य के इतिहासको अधिक प्राचीन मानने में संकोच करते थे।
जैकोबी, कीथ, बुलनर आदि का ही एक तर्क यह भी है कि, क्यों कि पउमचरिय में यवनों, शकों तथा कतिपय यूनानी एवं रोमन शब्दों का उल्लेख मिलता है, अतः यह ग्रन्थ ३-४ थी शती से पूर्वका नहीं हो सकता । अन्य आधुनिक विद्वान् भी इसी तर्क को सब से अधिक महत्त्व देते हैं । प्राचीन साहित्य में यवन शब्द यूनानियों के लिये प्रयुक्त होता था और यूनान एवं यूनानियों के साथ भारत एवं भारतीयों के सम्पर्क लगभग ६ ठी शती ई० पू० से मिलने लगते हैं । ४ थी शती ई० पू० में सिकन्दर के आक्रमण के उपरान्त तो अनेक यूनानी इस देश में बस भी गये और शनैः शनैः भारत वर्ष की जनता का अंग बन गये। स्वयं जैनों के साथ भी उनके निकट सम्पर्क रहे । ईस्वी सन् के प्रारंभ से लगभग एक सौ वर्ष पूर्व होनेवाले यूनानी इतिहासकार दागसने अपने समय से सौ डेढ़ सौ वर्ष पूर्व हो जानेवाले एक अन्य यूनानी विद्वान के अनेक प्रमाण दिये हैं, जिनसे स्पष्ट प्रकट है कि ट्रागस का वह प्राचीन आधार जैनों, उनके धर्म एवं अनुश्रुतियों से भली भाँति परिचित था । शुंगकालीन (२ री शती ई० पू० ) पातञ्जलि के महाभाष्य में भी यवनों का उल्लेख पाया जाता है। ऐसी परिस्थितियों में ईस्वीसन के प्रारंभ में रचित विमलार्य के पउमचरिय में यवनों या यवनानी भाषा के कतिपय शब्दों का उल्लेख पाया नाना कोई आश्चर्यजनक बात नहीं है । यूनान और भारत के सांस्कृतिक सम्पर्क तथा आदान-प्रदान विमलार्य के समय से शताब्दियों पूर्व प्रारंभ हो चुके थे । इसी प्रकार शक लोग भी उनके समय से लगभग एकसौ वर्ष पूर्व भारत में प्रविष्ट हो चुके थे और बस चुके थे। प्रथम शती ई० पू० में ही शक जाति में जैन धर्म का अच्छा प्रचार था और प्राचीन जैन अनुश्रुतियों में शकों को महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त है। इस्वीसन् के प्रारंभ के लगभग के मथुरा से प्राप्त जैन शिलालेखों में भी शकों का उल्लेख है।" रोम एवं रोमन जाति के व्यापारिक संबंध भारतवर्ष के साथ २री शती ई० पू० से ही प्रारंभ हो गये थे और उनकी दीनार नामक मुद्राविशेष से बहुत से पश्चिमीतटवर्तीय भारतीय परिचित हो गये थे। प्रथम
२३. स्टडीज़ इन दी जैन सोर्सेज़, अ० २; तथा प्रो० टार्नकृत प्रीक्स इन इंडिया एण्ड बैट्रिया । २४. उपरोक्त स्टडीज़ इन दी जैन सोर्सेज़, अ. ३, व ४; तथा कालका वार्यकथानक,