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श्रीमद् विजयराजेन्द्रसूरि-स्मारक-ग्रंथ दर्शन और बुद्धक्षेत्र और बुद्ध आत्माएं मेरे अपने काय में अबाध आविर्भूत होती हैं और एक केशान पर भी एक विशाल बुद्धक्षेत्र दृष्टिगोचर हो जाता है। प्रत्येक द्रव्य में अन्य समस्त द्रव्य अन्तर्विद्ध तथा व्याप्त हैं । एक भी कण के नाश होने से समस्त विश्वसंहति अपूर्ण हो जाती है । अन्योन्य प्रवेश, अन्योन्य आश्रय महायान विचारधारा के शिखर हैं । जब तक अन्तर्दृष्टि की उपलब्धि नहीं होती तब तक जगत् इन्द्रियों के गोचर तक ही सीमित रहता है और मनुष्य दुःख और पीड़ा से बाहर नहीं निकल सकता । बुद्ध की करुणा समन्तभद्र, अर्थात् सब का भला हो, इस भावना से प्राणियों को अपनी गोदी में लेती है । छः पारमिताओं के द्वारा दशमि आरोहण करने पर बोधिसत्व अवस्था से मनुष्य बुद्धावस्था को प्राप्त होता है।
विक्रम की पांचमी शताब्दी के प्रख्यात विद्वान् धर्मनन्दी हैं । ये संस्कृत आगम साहित्य के परम विज्ञ थे । इनका जन्म तुरुष्क देश में हुआ था। इनके अवशिष्ट ग्रन्थों में एकोतरागम तथा अशोकराजपुत्रचक्षुर्भेदनिदानमूत्र विशेष उल्लेख के योग्य है। भारतीयता का जहां चारों और सम्मान था वहां कभी कभी कनफ्यूशस् और ताऔ मत के अनुयायियों से संघर्ष भी हो जाता था। इन संघर्षों में छोटे और बड़े राजा भी भाग लिया करते थे। अनेकों बार विरोधी राजाओंने चीनी भिक्षुओं को बलात् गृहस्थ में प्रवेश कराया और बौद्ध विहारों को भस्मसात् किया। किन्तु ऐसी स्थिति कुछ समय तक ही और कभी कभी ही हुआ करती थी । भारतधर्म का चीन में उत्तरोत्तर आदर और प्रचार फेलता गया। लाखों, करोड़ों चीनियोंने बुद्धधर्म की शरण ली।
चीन की लिपि शब्दलिपि है, इस लिपि का शब्द की ध्वनि से कोई सम्बन्ध नहीं । वर्णमाला की कल्पना ही नहीं । जो व्यक्ति पढ़ना, लिखना, सीखना चाहता है उसको सहस्रों ही चित्रमय चिन्हों का अभ्यास करना पड़ता है । समस्त जीवन लगाने पर भी कोई चीनी विद्वान् यह नहीं कह सकता कि मैं लिखे हुए सब शब्दों को पढ़ सकता हूं । जिस समय भारतवर्ष के सहस्रों नाम चीनियों के सामने आए तो प्रश्न उठा इनको चीनी में किस प्रकार लिखा जाए। इसके समाधानस्वरूप भारतीय नामों का अनुवाद किया गया । जैसे बुद्ध भगवान का नाम । इसको दो अक्षरों के संयोग से अभिव्यक्त किया गया। पहला अक्षर नवाची और दूसरा मनुष्यवाची । इस संयोग का भावार्थ-जो मनुष्य नहीं, किन्तु मनुष्यों से ऊपर है । प्रायः अनुवाद व्युत्पत्ति के अनुसार किए गए। यथा नागार्जुन का नाम चीनी नाग-और श्वेत-वाची अक्षरों के संयोग से ।
किन्तु तन्त्रशास्त्र के मन्त्रों की शक्ति मुख्यतया ध्वनि में निहित है । इसलिए मन्त्रों