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संस्कृति विशिष्ट योगविद्या ।
३९७ करते हुए सोचना कि यह तत्त्ववार्ता श्री वीतराग भगवान् प्ररूपित होने से सत्य ही है इसमें किसी प्रकार के असत्य को स्थान नहीं है । अत एव इसको न समझना मेरे कर्मों का ही दोष-अंतराय हैं। इस प्रकार सोच कर श्रीवीतरागभाषित तत्त्वों का चिन्तनमनन करना और नहीं समझ सके ऐसे गूढ़ विषयगर्भित तत्त्वों की सत्यता के लिये चित्त को शंकित नहीं बना कर मन को एकाग्र बनाना आज्ञाविचयधर्मध्यान है।
(२) अपायविचयः- इस संसार में जीव को चारों गति में भ्रमण करानेवाले राग, द्वेष, कषाय और मिथ्यात्व हैं।
रागद्वेषरूपी अग्नि से संतप्त हुआ प्राणी ज्ञानावरणादि कर्मों का बन्ध कर कभी नरक में, कभी निगोद में, कभी तिथंच में, कभी वनस्पति में, तो कभी मनुष्य योनि में, कभी देवयोनि में भटकता रहता है और निज आत्मशक्ति को भूल कर आत्मवंचन करता रहता है । अतः परमदयालु श्रीवीतराग प्रभु ने राग-द्वेष को संसार के भ्रमण का कारण बतलाया हैं।
____ क्रोध, मान, माया और लोभ भी यदि पराजित नहीं किये गये तो ये जीव को संसार-भ्रमण ही करवानेवाले हैं । अर्थात्-चारों कषाय संसाररूपी वृक्ष के मूल का सिंचन करनेवाले हैं । अज्ञान भी आत्मा का कम नुकसान करनेवाला नहीं है । जीव अज्ञान के वश हुआ अपने हिताहित को नहीं जान सकता।
इन राग-द्वेष, कषाय और अज्ञान के गर्त में गिरा हुआ प्राणी चारों गतियों में परिभ्रमण करता हुआ महारौद्र दुःख का भाजन बनता है । इस प्रकार राग-द्वेष और कषायादि के दुःखों का परिचिन्तन कर चित्त को धर्मध्यान में संलग्न करना अपायविचय धर्मध्यान है।
(३) विपाकविचय:-आत्मा परम विशुद्ध ज्ञान-दर्शनस्वरूप है। उस पर ज्ञानावरणादि आठ कर्मों का आवरण आ जाने से उसका सच्चा स्वरूप प्रकाशित नहीं होता । जिस प्रकार धधकता आग का अंगारा राख के कणों के आवरण से आवरणित हो जाता है, तब नहीं दीख पड़ता, उसी प्रकार परम विशुद्ध आत्मा कर्ममल से आवरणित होने के कारण दब जाती है याने नहीं दिखती है। उसे जो संयोग, वियोग, संपत्ति-विपत्तिजन्य सुख दुःख भोगना पडता है, वह सब उस ( आत्मा ) के निजोपार्जित शुभाशुभ कर्मों का ही फल है। आत्मा को उसके पूर्वभवके संचित्त कर्म ही नरक, निगोद, तियंच, देव और मानव गतियों में घुमा कर सुख-दुःख देते हैं। कर्मों के सिवाय उसे दूसरा कोई सुख-दुःखदाता है नहीं।