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श्रीमद् विजयराजेन्द्रसूरि-स्मारक-ग्रंथ जिन, जैनागम होते हैं, वे सभी स्थान कालान्तर में पूजनीय बन जाते हैं। पुरुष और पशु तथा पक्षी को ही नहीं, अपितु सुरासुरों को वहाँ का कण-कण तक भी शिरोधार्य होता है। जैनजनों के सुप्रसिद्ध तीर्थस्थान सम्मेदशिखर, गिरनार, पालीताणा ( शत्रुजय ) इस दिशा में साक्षीभूत हैं । तीर्थ के अमित अमोघ प्रभाव को स्पष्टतया स्वीकार करता हुआ संसार कहने लगता है- तीर्थ के मार्ग की रज को पाकर मनुष्य कर्म-रजसे रहित हो जाता है। तीर्थों में भ्रमण करने से भवमें भ्रमण नहीं होता है। तीर्थ की यात्रा करने के लिये अञ्चल लक्ष्मी व्यय करने से अचञ्चल शिवलक्ष्मी मिलती है।' जगत तीर्थयात्रा करता हुआ मुमुक्षु भाव में आत्मा का हित करने के लिये कहता है- तीर्थयात्रा उसीकी सफल है जो आत्मा के तीर्थ पर पहुंचा और आत्मा के तीर्थ(पानी)में ही निमग्न हुआ। सहर्ष सहस्र वार संसार के लेखे वे धन्य हैं तीर्थनिर्माता तीथकर जो दर्शनविशुद्धि आदि सोलह कारण भावनाओं का चिन्तवन कर तीर्थकर बनते हैं
और तीर्थ बनाते हैं। तीर्थङ्कर की देन
__ जैनधर्म, जिसकी विश्वव्यापकता महान् है और जिसकी प्राचीनता के चिह्न दिनप्रतिदिन मिलते ही जा रहे हैं तथा जो व्यक्ति और विश्व के उपकार की भावनाप्रधान है एवं जो प्राकृतिक जीवनसंगत सयुक्तिक धर्म है, जिसकी अहिंसा अवर्णनीय है और जिसका अपरिग्रह प्रशंस. नीय है तथा जिसका कर्मवाद चिन्तनीय है एवं जिसका अनेकान्तवाद अनुकरणीय है, जिसे विश्व-धर्म अथवा मानव-धर्म या फिर जन-जन के मन-मन का धर्म कहा जा सकता है और जो विज्ञानों का विज्ञान तथा कलाओं की भी कला है, जो आत्मा को परमात्मा बना देने का विज्ञान सिखाता है और जीवात्मा को मुक्तात्मा बनने की कला सिखाता है तथा जिसमें अँधेरे में निशाना लगाने जैसा प्रयास कहीं पर भी अणुमात्र भी दृष्टिगोचर नहीं होता, वह आज का उपलब्ध जैनधर्म-दर्शनसाहित्य साक्षात् सर्वज्ञ तीर्थंकर की ही परम्परागत देन है। कहा जावे तो जैसे सृष्टि (जैन मान्यता के अनुसार) अनादि, अनिधन है, वैसे ही जैनधर्म भी और उसके प्रचारक-प्रसारक-प्रवर्तक तीर्थकर भी हैं । तीर्थङ्कर का महत्त्व
मोक्ष-मार्ग-विहारी, शिवाकान्त तीर्थकर जीवन का लक्ष्य प्राप्त करते हैं और उपलब्ध परमात्मस्वरूप में ही निरन्तर लयलीन रहते हैं। कर्म और कषायों से परे रह कर सुख का
卐 दर्शनविशुद्धिविनयसम्पन्नताशीलवतेष्वनतीचारोऽभीक्षणज्ञानोपयोगसंवेगौ शक्तितस्त्यागतपसी साधुसमाधिवैयावृत्यकरणमहदाचार्यवहुश्रुतप्रवचनभक्तिरावश्यकपरिहाणिमार्गप्रभावनावत्सलत्वमिति तीर्थकरत्वस्य ।