________________
४२६
श्रीमद् विजयराजेन्द्रसूरि-स्मारक-प्रथ जिन, जैनागम आधारित है। जैन ग्रन्थों में वर्तमान चौवीसी के सिवाय भूत और भविष्यत काल की चौवीसी के भी नाम मिलते हैं। तीर्थकर का स्थान
तीर्थकर, अहंत और जिनेन्द्र भी हैं। चूंकि वह भव्य जीवों के उद्धार के लिये उपदेश देता है, अतएव जैनजनोंने ' णमोकार मन्त्र ' में सर्वप्रथम उसको ही ' णमो मरहन्ताणम्' कह कर नमस्कार किया है । सिद्ध भविष्य का बृहत् और साधु, उपाध्याय, आचार्य तीर्थंकर के भूत के संक्षिप्त संस्करण हैं । जो स्थान हिन्दुओं में अवतार का, बौद्धों में बुद्ध का, ईसाइयों में ईसामसीह का, मुसलमानों में पैगम्बर का, जोरेस्ट्रीयनों में अहूर का है, वही स्थान जैनजनों में तीर्थंकर का है। चूंकि तीर्थकर आत्मा की उपलब्धि कर लेते हैं, अतएव उन्हें कोटिशः प्रणाम है । इतना ही मुझे ' तीर्थंकर और उसकी विशेषतायें ' निबन्ध में कहना है ।