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श्रीमद् विजयराजेन्द्रसूरि-स्मारक-ग्रंथ जिन, जैनागम भद्रबाहु की शिष्य-परम्परा का अभाव है। उक्त स्थविरावलियां भद्रबाहु के गुरुभाई संभूतिविजय के शिष्य स्थूलभद्र से आगे चलती हैं।
ऋषिमण्डलसूत्र में भद्रबाहु की स्तुति एक गाथा के द्वारा की गई है, किन्तु उनके उत्तराधिकारी स्थूलभद्र की स्तुति वीस गाथाओं में की है। भद्रबाहु की स्तुति पर गाथा इस प्रकार है
'दसकप्पबहाश निज्जूढा जेण णवमपुवाओ।
वंदामि भद्दवाहुं तमपच्छिम सयल सुयनाणि ।। अर्थात् जिसने नवम पूर्व से दशकल्प और व्यवहारसूत्र का उद्धार किया उन अन्तिम श्रुतकेवली भद्रबाहु को मैं नमस्कार करता हूं ।
_ 'अपश्चिम' शब्द का अर्थ अन्तिम होता है, किन्तु 'पश्चिम नहीं ' ऐसा भी किया जा सकता है। दिगम्बर परम्परा के अनुसार भी भद्रबाहु अन्तिम श्रुतकेवली थे, किन्तु श्वेताबर परम्परा में स्थूलभद्र को भी छट्ठा श्रुतकेवली माना है। इस लिये अपश्चिम का अर्थ 'पश्चिम नहीं ' लिया जाता है। स्थूलभद्र किस प्रकार से श्रुतकेवली बने, यह आगे ज्ञात होगा।
" स्थविरावलियों और ऋषिमण्डलसूत्र से तो भद्रबाहु के विषय में इतनी ही जानकारी प्राप्त होती है । श्री हेमचन्द्रसूरि के परिशिष्ट पर्व से भी उनके अन्तिम जीवन. की ही जानकारी होती है। उनके जन्मस्थान विगैरह के विषय में कुछ भी ज्ञात नहीं होता।
____ अर्वाचीन टीकाकारोंने प्रतिष्ठानपुरवासी प्रसिद्ध ज्योतिषी वराहमिहिर और भद्रबाहु को सहोदर भ्राता बतलाया है। किन्तु वराहमिहिर का समय विक्रम की छठी शताब्दी सुनिश्चित है । उन्होंने अपनी पञ्चसिद्धान्तिका में उसका रचनाकाल शक सं. ४२७ दिया है, अतः विक्रम से ३०० वर्ष पूर्व होनेवाले श्रुतकेवली भद्रबाहु वराहमिहिर के भाई नहीं हो सकते, यह निश्चित है । उक्त ग्रन्थों से मोटे तौर से भद्रबाहु के सम्बन्ध में इतनी ही जानकारी हो पाती है, दिगम्बर परम्परा में श्रुतकेवली भद्रबाहु के जन्मादि का परिचय हरिषेण के कथाकोश से मिलता है । लिखा है
पौण्ड्रवर्धन देश में देवकोट्ट नामक नगर है, उस नगर का पुराना नाम कोटीमत था । उसमें सोमशर्मा नामक ब्राह्मण रहता था। उसकी पत्नी का नाम सोमश्री था। उनके भद्रबाहु नामक पुत्र था । एक दिन भद्रबाहु अपने साथी बालकों के साथ खेलता था । खेल में उसने एक के ऊपर एक-एक करके चौदह गंटू ( कक्कर ) चढ़ा दिये ।
चतुर्थ श्रुतकेवली गोवर्धनाचार्य उधर से जाते थे। उन्होंने भद्रबाहु के इस हस्त