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संस्कृति
विशिष्ट योगविद्या । (३) स्तेनानुबन्धी-रौद्रध्यानः-हृदय में नित्य परधनहरण का विचार करना, करवाना और करनेवाले को भला मान कर उसकी अनुमोदना करना, स्तेनानुबन्धी रौद्रध्यान है।
(४) विषयसंरक्षणानुबन्धी-रौद्रध्यानः-संचित धन को कैसे सम्भाला जाय, इसे ऐसे स्थान पर रखें कि चोर नहीं ले जाय, ऐसी २ योजना बनाऊं कि जिसके सफल होने पर बहुत धन का स्वामी बनजाऊं, फिर अनेक प्रकार के बड़े-बड़े विशाल भवन बना कर उसमें निवास करूं और पांचों इन्द्रियों सम्बन्धी विषयों के सुख भोगू तथा महारूपवती, नवयौवना, परममनोहर लीलावाली कामकेलीपंडिता ऐसी रमणियों के साथ पाणिग्रहण कर पंचविध भोग भोगू। ऐसे विचारों में प्रतिदिन रह कर ऐसे ही प्रपंचों में लगा रहना विषयसंरक्षणानुबन्धी रौद्रध्यान है।
रौद्रध्यान के चार लक्षण हैं:- उत्सन्नदोष, बहुलदोष, नाना( अज्ञान )दोष और आमरणदोष ।
संसार के समस्त प्राणियों का अधिक भाग संसारभ्रमण के कारणभूत इन आर्तरौद्र की भीषण दुःखदायी जाल में फंसकर संसार में भ्रमण करते हैं। कोई अनिष्टसंयोग होने से उसका वियोग कैसे हो ? इसके लिये चिन्तित हैं। कोई इष्टका वियोग होने से उसके संयोग के लिये उत्सुक हैं । तो कोई रोग के आतंक से उत्पीडित हैं । कोई ऐच्छिक विषयभोग के साधन संजुटित करने की दौड़में संलग्न हैं । कोई हिंसा के ताण्डव में लीन हैं। तो कोई असत्य भाषण में पटु हैं । कोई परधनहरण में दक्ष हैं। कोई सुखभोग के पीछे पागल हो रहे हैं। यह सारा ताण्डव आर्तरौद्र का ही है । वास्तव में ये दोनों ध्यान योगमार्ग में बाधक है। शास्त्रकारों ने इन का वर्णन इसी आशय से किया है कि
साधक को योग मार्ग में प्रवृत्त होते हुए, आत्महित के लिये इन का (आर्त-रौद्र) त्याग करना चाहिये । अतएव जिसका त्याग करना है। उसके गुण-दोषों को भली प्रकार सोच लेना चाहिये कि हम इनका त्याग क्यों कर रहे हैं।
___ इन दोनों ध्यानों को दुर्ध्यान भी कहते हैं। श्री आतुर प्रत्याख्यान-प्रकीर्णं में इन के ६३ भेद भी " अनाणझाणे” आदि पाठ से कहे हैं। श्री आवश्यक सूत्र में आतं
२६ रुहस्सणं ज्झाणस्स चत्तारी लक्खणा पण्णत्ता । तं जहा-१ उसण्णदोसे २ बहुदोषे। ३ अण्णापदोसे। ४ आमरणंतदोसे।