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और जैनाचार्य तीर्थङ्कर और उसकी विशेषतायें ।
४२१ तथा स्वर्ग के देवता एवं नर्क के नारकी जन्म लेते हैं, मरते हैं और सुख-दुःख जो भी आता है सहते हैं- संसार का जीवन कहने के लिये है । इसमें कोई भी सुनिश्चित नियम नहीं है। मनुष्य का हृदय बड़ा रहस्यमय है । स्वार्थ और लाभ उसके लिये विशेष आकर्षण रखते हैं; परन्तु मनुष्य की मति में, मन में, आत्मा में एक ऐसी शक्ति भी है जिस की सहायता से, सदुपयोग से मनुष्य महान् वन्दनीय तीर्थकर हो सकता है।' ___'मैं मनुष्य हूं। मन और मतिवाला हूं। मेरा तो धर्म ही विश्ववन्धुत्व और समभाव की साधना तथा आत्मोन्नतिका है । अनन्तदर्शन-ज्ञान-सुख और वीर्य का स्वभाव से अधिकारी मनुष्य मैं, सूर्य-चन्द्र, गृह-नक्षत्र सा निष्पक्ष, प्राणीमात्र में एक मूलभूत अन्तरात्मा का प्रेरक, अधम से अधम के उत्थान का इच्छुक, पाप और पुण्य, धर्म और अधर्म जैसे सभी भेदभावों से विलग, लोक से अलोक की ओर प्रगति का अभिलाषी, अपने साथ संसार को सुखी बनानेवाले स्वर्णोपदेशों का अक्षय भण्डार मैं, कहाँ अपनी अन्तरात्मा को भूल कर भौतिक भोग-वासना में फँस रहा हूँ ! क्या यही साधना करने के लिये मैं कानन में आया हूं ! क्या ऐसा कर के मैं अपने साथ संसार को नहीं छल रहा हूं ! यहाँ तो फूल में शूल हैं
और मिलन में विरह, जन्म में मृत्यु जुड़ी तो विवेक में अविवेक और उत्थान में पतन भी। यहाँ अब और कहाँ तक धैर्य रक्खू !'
'मेरा जीवन भव-सिंधु में भ्रमण करते करते कुत्सित और कलंकित हो गया है । जिस छाया-चित्र और काल्पनिक महत्व के लिये मैं दिन-रात दौड़ता था, आज उसीका मुझे अपने हाथों अवसान करना है। क्योंकि उसने मेरी शान्ति-मणि खोई, मुझे आत्म-स्वरूप से विस्मृत किया। ओह ! आज मैं कुछ समझ पा रहा हूं कि कहाँ और कितने नीचे हूं। यद्यपि नैसर्गिक क्रियाओं का लोप होजाने से मैं ही नहीं, सारा संसार दुःखी होरहा है और भौतिक भोगों के प्रभाव में हमारे धार्मिक संस्कार छूट रहे हैं। आज तक मैंने अपनी अन्त. रात्मा को आवाज नहीं सुनी थी, पर अब और अधिक मैं शरीर का मोह लेकर नहीं मरूंगा, बल्कि धर्म के चक्र का नियामक तीर्थंकर बनूंगा और वीतरागता, सर्वज्ञता तथा हितोपदेशिता पाकर रहूंगा।' तीर्थकर के केवलज्ञान पाने के बाद विचार
'पहले तो जन्म से तीन ही ज्ञान थे। फिर चार हुये और आज पाँच+ या फिर वह एक जिसके सम्मुख अतीत के चारों ज्ञानों का कोई अस्तित्व नहीं। कितना गौरवमय आज
___ + मति, श्रुति, अवधि, मनःपर्यय और केवलज्ञान ।