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संस्कृति
विशिष्ट योगविद्या । योग शब्द "युज् " धातु से करण और भाववाची घय् प्रत्यय लगने पर बनता है-जिसका अर्थ है "युजि च समाधौ” याने समाधी को प्राप्त होना । योग यह एक महान् आत्म-प्रगति का मार्ग है, जो वास्तव में आत्मा को अभिलषित स्थान-मोक्ष तक पहुंचाने में समर्थ है। जैन दर्शन में योग का अतीव महत्त्वपूर्ण स्थान है। जैन दर्शन प्रायः सम्पूर्ण रूपेण यौगिक साधनामय है। पातंजल योगदर्शन में 'योगश्चित्तवृत्तिनिरोध' से योग को चित्त की चंचलवृत्तियों का निरोधक कहा गया है। वैसे ही जैन दर्शन में योग को मोक्ष का अंग माना गया है- "मुक्खेण जोयणाओ जोगो" याने जिन जिन साधनों से आत्मा कमों से विमुक्त होकर निज लक्ष्यबिन्दु तक जाकर राग-द्वेष एवं काम क्रोध पर विजय प्राप्त करे उन-उन साधनों को योगांग कहा गया हैं। इस प्रकार आत्मोन्नतिकारक जितने भी धार्मिक साधन हैं वे सब योग के अंग हैं।
महर्षि पतंजलिकृत योगदर्शन में कहा गया है कि योग के अष्टांगों की परिपूर्ण रीत्या साधना-अनुष्ठान करने से चित्त का अशुभ मल का नाश होता है और आस्मा में शुद्धभाव (सम्यग्ज्ञान-केवलज्ञान) का प्रादुर्भाव होता है। वे अष्टांग ये हैं-यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि ।
साधनाकर्ता व्यक्ति जितने-जितने अंश में योगानुष्ठान करता है उतने-उतने अंश में चित्त के अशुद्ध-मल का नाश होता है और जितने-जितने अंश में कर्ममल का क्षय होता हैं, उतने-उतने अंश में उसका ज्ञान बढ़ता है। अन्त में ज्ञान का यह विकास सम्यग्ज्ञान-केवलज्ञान में अपनी अन्तिम पराकाष्ठा को प्राप्त होता है। इस तरह योग के अष्ट अंगों का अनुष्ठान करने पर चित्त के अशुद्ध मल का नाश और विवेकख्यातिसम्यग्ज्ञान का प्रादुर्भाव-ये दो फल निष्पन्न होते हैं । योग के अष्टांगों में यम, नियम, आसन, प्राणायाम और प्रत्याहार ये पांच बहिरंग साधन हैं और धारणा, ध्यान तथा समाधि ये तीनों अंतरंग साधन कहे गये हैं। पांच अंग चित्तगत मलके क्षय करने में सहा. यक हैं और अन्त के तीन अंग विवेकख्यातोदय केवलज्ञान प्राप्त करने में सहायभूत हैं ।
___ उक्त अष्टांगों का स्वरूप-फल और इनकी साधना से मिलने वाली लब्धियों का पातंजलयोगदर्शन में बड़ा ही विस्तृत और परम व्यवस्थित विवेचन किया गया है ।
३ श्रीहारिभद्रीय योगविंशतिका गा. ११ ४ योगांगानुष्ठानादशुद्धिक्षये ज्ञानदीप्तीः आविवेक ख्याते (साधनापाद सूत्र २८ वाँ) ५ यमनियमासनप्राणायामप्रत्याहारधारणाध्यानसमाधयोऽष्टावंगानि । ( साधनापाद सूत्र २९ वाँ)