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संस्कृति ।
विशिष्ट योगविद्या । यमों का यथावत् पालन करना प्रथम कर्तव्य है । जब साधक व्यक्ति अहिंसादि के सुग. मानुष्ठानार्थ एतद्विरोधि हिंसा, असत्य, स्तेय, मैथुन और परिग्रहवृत्ति का सर्वथा त्याग कर देता है, तब उसे एक अनुपम आनन्द प्राप्त होता है जिसका वर्णन अवर्णनीय है।
२ नियम--योग का द्वितीय अंग है नियम । ईप्साओं पर विजय प्राप्त करने की दृष्टि से शास्त्रकार महर्षियोंने अनेक विधि-विधान (नियम ) बतलाये हैं। जिन का योग्य प्रकार से विधिवत् पालन करने से मन आत्मरमण में लीन हो कर कर्म-संवर में अग्रसर होता है । पातंजलयोगदर्शन में 'नियम' पांच प्रकार का कहा गया है। शौच, संतोष, तप, स्वाध्याय और देवप्रणिधान ।
शरीर और चित्त की शुद्धि का नाम 'शौच' है । जीवन सुखपूर्वक यापन-व्यतीत हो उतने ही पदार्थों से अधिक के लिये तृष्णा से उत्पीडित नहीं होना 'संतोष' है । छः प्रकार का बाह्य और छः प्रकार का आभ्यन्तर तप बिना किसी फलप्राप्ति की आकांक्षा से करना 'तप' है । आषषिप्रणीत शास्त्रों का परम विशुद्ध चित्त होकर पठन करना 'स्वाध्याय' है। आगमविहित समस्त धर्मानुष्ठानों में चराचर समस्त प्राणिहितचिन्तक सर्वज्ञ-सर्वदर्शी श्री वीतराग की दर्शन-पूजन कर उनका ध्यान किसी ईसा से प्रेरित होकर नहीं करना 'देवप्रणिधान' है। पंचमांग-श्री व्याख्यानप्रज्ञप्ति-श्री भगवतीमूत्र में नियमान्तर्गत 'शौच' 'स्वाध्यायादि' का वर्णन यों आया है:-हे भगवन्त, आप की यात्रा क्या है ? । सोमिल ! तप, नियम, संयम, स्वाध्याय, ध्यान और आवश्यकादि में जो प्रवृत्ति है, वह मेरी यात्रा है।
शोच से आत्मदर्शन की योग्यता, संतोष से उच्चस्तरीय आत्मसुख की प्राप्ति, स्वाध्याय से इष्टदर्शन का समय, तपस्या से ईप्साओं पर विजयप्राप्ति और प्रणिधान से आत्मसमाधि की प्राप्ति होती है । नियम इतना ही सीमित नहीं है, अपितु जैनागमों में इसका अतीव व्यापक अर्थ किया गया है-श्री समवायांगसूत्र की ३२ वीं समवाय में ३२ योग१"संग्रह में नियम ही की तो झलक प्रस्फुटित होती है ।
१४...से किं ते भन्ते । जत्ता ! सोमिला 1 5 मे तवनियमसंजमसज्झायझाणावस्सयमादीएसु जोगेसु जयणा सेत्तं ता.........॥
(श्रीमगवतिसूत्र शतक १८, १० वाँ उद्देश ) १५ बत्तीस जोगसंगहा पण्णत्ता। तं जहाः-1 आलोयण २ निखलावे। ३ आवईसुदधम्मया, ४ अणिस्सिओवहाणे य, ५ सिक्खा ६ निप्पडिकम्मया, ७ अण्णायया, ८ अलोमे य, ९ तितिक्खा १० अजवे ११ सुई १२ सम्मदिट्ठी १३ समाहीय, १४ आयारे, १५ विणओवए. १६ धिईमईय १७ संवेगे, १८ पणिही १९ सुविहि २० संवरे । २१ अत्तदोसोवसंहारे, २२ सव्वकामविरत्तया । २३-२४ पच्चक्खाणे २५ विउस्सग्गे २६ अप्पमादे २७ लवालवे। २८ झाणसंवरजोगेय, २९ उदए मारणंतिए। ३. संगाणं च परिणाया, ३१ पायच्छित्तकरणेऽविय । ३२ आराहणाय मरणंते, बत्तीसं जोगसंगहा ।