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विशिष्ट योगविद्या श्रीमद्विजय यतीन्द्रसूरीश शिष्य मुनि देवेन्द्रविजय ॥ " साहित्यप्रेमी"
योगः कल्पतरुः श्रेष्ठो, योगश्चिन्तामणि परः॥ योगः प्रधानं धर्माणां, योगः सिद्धेः स्वयं ग्रहः ॥ ३७॥ कुण्ठी भवन्ति तीक्ष्णानि मन्मथास्त्राणि सर्वथा । योगवर्मावृत्ते चित्ते तपश्छिद्र कराण्यपि ॥ ३९ ।। योगः सर्वविपदल्ली, विताने परशुः शितः।
आमूलमंत्रतंत्रं-व कार्मणं निवृतिश्रियः ॥ ५॥ इस संसार में अनादिकाल से जड़वादी और आत्मोत्थानाकांक्षियों की आध्यात्मिक ये दो विचार-परम्पराएँ प्रचलित हैं। दोनों विचारधारावादियोंने विश्व के चराचर संबंधी समस्त प्रश्नों को समझने-समझाने का अत्यधिक प्रयत्न कर अपने-अपने सिद्धान्तों की उत्पत्ति की है। दोनों विचार-श्रेणियाँ छत्तीस (३६) के अंक के समान जुदी जुदी हैं। जड़वादी धारा के माननेवाले मानते हैं किः - इन्द्रियों का सुख ही वास्तविक सुख है। इसको प्राप्त करने के लिये किये जाते हुये प्रयत्नों में पाप-पुण्य की दरार वृथा है । नीति
और अनीति का प्रश्न ढोंग मात्र है । सुखभोग के लिये यदि जघन्य से जघन्य कार्य भी किया जाय तो कोई हर्ज नहीं है । चूंकि शरीर भस्मीभूत हो जाने पर तो पुनरागमन है ही नहीं। यह तो वृक पदवत् वृथा बनाया गया भ्रामक ढकोसला मात्र है । आधिभौतिक सुख ही वास्तव में जीवन का आनन्द है। अतः हे मनुष्यो, इसे प्राप्त करने के प्रयत्न करो।'
इस जड़वादी मान्यता के ठीक विपरीत आध्यात्मिक पथानुगामी की मान्यता है । ऐहिक सुख उनकी दृष्टि में सर्वथा अनुचित हैं । ऐहिक सुख एकदम अवांछनीय हैं । अतः ये आस्तिक धर्म कहे जाते हैं। जैन, वैदिक और बौद्ध तीनों धर्म आध्यात्मिक भावप्रधान हैं । इन्द्रियजन्य विषयसुख को माननेवाले नास्तिक हैं-जैसे चार्वाक।
___ आर्यावर्त के आस्तिक दर्शन जैन, वैदिक और बौद्ध इन तीनों का सुखनिरूपण लगभग समान है। तीनों का लक्ष्य आत्म-विकासक है। आध्यात्मिक सुख को प्राप्त करना, कर्ममल का क्षय करना इन दो को तीनों धर्मोंने भिन्नभिन्न ढंग से समझाया एवं बतलाया है। १ श्रीहरिभद्रसूरिकृत योगबिन्दु। २ श्रीहेमचन्द्रसूरिकृत योगशास्त्र ।
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