________________
श्रीमद् विजयराजेन्द्रसूरि स्मारक -ग्रंथ दर्शन और असमर्थ रहता है। इस संबंध में व्यवहार भाष्य में एक
२२४
उत्सर्ग - अपवाद को समझने में बड़ा ही सुन्दर रूपक आया है:
---
एक आचार्य के तीन शिष्य थे । अपना पदभार किसको दें ! तीनों की परीक्षा के विचार से आचार्य एक एक शिष्य को बुलाकर कहते हैं-" मुझे आम्र ला कर दो। " अतिपरिणामी साथ में दूसरी भी चीजें लाने को कहता है । अपरिणामी कहता है- " आम्र करपता नहीं, मैं कैसे ला कर दूं ।” परिणामी कहता है- "भंते! आम्र कितने प्रकार के है ! कौनसा प्रकार और कितने लाऊँ ! आचार्य की परीक्षा में परिणामवादी उतीर्ण हो जाता है; क्यों कि वह उत्सर्ग और अपवाद के मार्ग को भलीभाँति जानता है । वह गुरु की हीलना भी नहीं करता और अतिपरिणामी की तरह एक वस्तु मंगाने पर अनेक वस्तु लाने को भी नहीं कहता । परिणामवादी ही जैन साधना का समुज्ज्वल प्रतीक है; क्यों कि वह समय पर देश, काल और परिस्थिति के अनुसार अपने जीवन को ढाल सकता है ।
अपरिणामी उत्सर्ग के ही चिपटा रहेगा। अतिपरिणामी अपवाद का भी दुरुपयोग करता रहेगा और किस समय पर कितना परिवर्तन करना यह उसे भान ही नहीं रहेगा । अपरिणामी जड़ होकर रहेगा। धर्म के रहस्य को, साधना के महत्व को परिणामी साधक ही सम्यक् प्रकार से जानता है और उसके अनुसार अपने जीवन को पवित्र एवं समुज्जवल
I for निरन्तर प्रयत्न भी करता ही रहता है ।
उत्सर्ग और अपवाद के रहस्य को जाननेवाला गीतार्थ कहा जाता है। गीतार्थ अपने देश, काल एवं परिस्थितिवश उत्सर्ग से अपवाद में और अपवाद से उत्सर्ग में आ जा सकता है । परिस्थिति आने पर अपवाद का आश्रय लेनेवाला अपराधी और हीन नहीं कहा जा सकता; क्यों कि उत्सर्ग और अपवाद दोनों में भगवान् की आज्ञा अनुस्यूत है । उत्सर्ग से अपवाद में जाने में अधर्म नहीं होता । इस संबंध में यहाँ पर कुछ उद्धरण दिये जा रहे हैं:
वर्षा बरसते समय भिक्षु अपने उपाश्रय से बाहर नहीं निकलता; क्यों कि जलीय जीवों की विराधना होती है, हिंसा होती है - भिक्षु का यह उत्सर्ग मार्ग है । परन्तु साथ में इसका यह अपवाद भी कि चाहे वर्षा बरस रही है तो भी भिक्षु शौच और पेशाब करने बाहर जा सकता है । कच्चे जल की जहाँ स्पर्श मात्र की भी आज्ञा नहीं वहाँ यह आज्ञा अपवाद मार्ग है ।
भिक्षु का यह उत्सर्ग मार्ग है कि वह मनसा, वाचा, कायेन किसी भी प्रकार के जीव की हिंसा न करें । क्यों नहीं करें ? इसके समाधान में दशवैकालिक सूत्र में भगवान् ने कहा
१ " वचमुत्तं न धारए । द. वै. अ. ५, गाथा १९ ।
13