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संस्कृति जीवों की वेदना।
૨૮૩ मानव जीवन के सुख
१ आरोग्य, २ दीर्घ आयु, ३ धन-धान्य से परिपूर्णता, ४ काम, ५ भोग, ६ संतोष, ७ मनोरथों की पूर्ति, ८ सुखभोग, ९ निष्क्रमण और १० अनाबाध । अंतिम दो सुख आध्यात्मिक जीवन के हैं।
(ठा० सू० ७३७) वेदनीय कर्म का उदाहरण
जिस प्रकार मधुलिप्त असिधारा का आस्वादक मधु के आस्वाद से सुखानुभूति और असिधारा के स्पर्श से जिह्वाछेदजन्य दुःखानुभूति करता है, ठीक इसी प्रकार आत्मा भी इष्ट पुद्गल के योग से सुखानुभूति और अनिष्ट पुद्गल के योग से दुःखानुभूति करती है ।
(कर्म० भा० १) वेदनीय कर्म के भेद
फलकी अपेक्षा से सातावेदनीय के आठ भेद हैं-मनोज्ञ, शब्द, रूप, रस, गंध, स्पर्श, मनसुख, वचनसुख और कायसुख । इसी प्रकार असातावेदनीय के भी आठ भेद हैं-अमनोज्ञशब्द यावत् कायअसुख ।
(पन्न० कर्मप्रकृति पद ३३) ___ कारणों की अपेक्षा से सातावेदनीय के दो भेद हैं-इपिथिक अर्थात् केवलयोगहेतुक, सांपरायिक अर्थात् कषायहेतुक । असातावेदनीय केवल सांपरायिक-कषायहेतुक ही होता है। वेदनीय कर्म की स्थिति और अबाधाकाल
योगहेतुक साता वेदनीय कर्म की स्थिति केवल दो समय की है । सांपरायिक साता. वेदनीय कर्म की स्थिति जघन्य बारह मुहूर्त, उत्कृष्ट पंद्रह कोटाकोटि सागरोपम और अबाधाकाल पंद्रह सौ वर्ष का है । असातावेदनीय की जघन्य स्थिति पत्योपम के असंख्यातवें भाग न्यून एक सागरोपम की, उत्कृष्ट स्थिति तीस कोटाकोटि सागर की और अबाधाकाल तीन हजार वर्ष का है। यहां अबाधाकाल उत्कृष्ट कहा गया है। अतएव बद्धकर्म की स्थिति के अनुसार ही अबाधाकाल समझना चाहिए । बद्धकर्म में फल देने की शक्ति का संचय अबाधाकाल में ही होता है।
(पन्न० कर्म० २३) वेश्याओं, कसाइयों और हिंसकों को संपन्न और सुखी देख कर तथा धार्मिक पुरुषों को दरिद्री और दुःखी देख कर बहुत से व्यक्तियों की यह धारणा बन गई है कि पापी सुखी और धर्मात्मा दुःखी होते हैं।
भगवान् महावीरने इन विचारों का प्रतिवाद करते हुये कहा हैं कि तीनों काल में अर्थात् सर्वदा समस्त दुःखों का मूल पापकर्म होता है और सुखों का मूल पुण्यकर्म होता है और यही स्थिति समस्त सांसारिक जीवों की है।
(भग० श० ७, उ०८)