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भीमद् विजयराजेन्द्रसूरि-स्मारक-ग्रंथ दर्शन और सकता तो विना शरीरधारी के वस्तुएँ नहीं बन सकतीं। आकारवाली वस्तुओं का बनानेवाला भी आकारवाला होना चाहिये । जैसे कुम्भकार घट को बनाता है। यदि कहें कि यह तो भगवान् की लीला ही वैसी है तो जहां हम ईश्वर को राग, द्वेष रहित मानते हैं वहाँ पर लीला का होना असंगत बात है । लीला तो संसारी जीव करता है-ईश्वर नहीं । जब ईश्वर होकर लीला करेगा तब ईश्वर में और संसारी जीव में अंतर ही क्या है, इसीलिये आनंदघनजीने कहा है कि:
कोई कहे लीला रे लख अलख तणी, लख पूरे मन आश ।
दोष रहितने रे लीला नवि घटे, लीला दोष विलास ।। भगवान् महावीरस्वामी गौतमस्वामी से फरमाते हैं किः
सयं भुणा कडे लोए, इति वुत्तं महेषिणा । मारेण संथुया माया, तेण लोए असासए ॥ माहण समणा एगे, आह अंडकडे जगे।
असो तत्तमकासीय, आयणंता मुसं वदे ॥ ( निम्रन्थप्रवचन ) अर्थात् हे गौतम ! कई लोग कहते हैं कि सुख और दुःखमय यह संसार है, जिसकी रचना देवताओंने की । कई लोग कहते हैं कि इस सृष्टि की रचना ईश्वरने की । कईयों का कहना है कि सत्व, रज, तम गुण समान अवस्था प्रकृति है । उस प्रकृतिने जगत् की रचना की । कोई कहते हैं कि स्वभाव से ही बनता रहता है। जैसे सक्कर में मिठाश, पुष्प में सुगंध, विष्टा में दुर्गंध स्वभाव से ही है। उसी प्रकार स्वभाव से ही सृष्टि की रचना हुई। कोई कहते हैं कि सृष्टि के पूर्व जगत् अंधकारमय था । उस में केवल विष्णु ही थे । उनके हृदय में इच्छा हुई कि मैं सृष्टि की रचना करूँ। उसके अनन्तर उन्होंने सारे विश्व को रचा । सृष्टि की रचना करने पर भी विष्णु के हृदय में विचार स्फुरित हुआ कि इन सब का समावेश नहीं हो सकेगा। ऐसा विचार करके पैदा होनेवालों को मारने के लिये मृत्यु और यमराज को बनाया। उससे माया उत्पन्न हुई। कई लोग कहते हैं कि प्रथम ब्रह्माने एक अंडा बनाया। उसके फूटने से आधे का स्वर्ग और आधे का मृत्युलोक बना। उसके बाद पर्वत, नदी, समुद्र, नगर, गाँव आदि की उत्पत्ति हुई । इस प्रकार सृष्टि की रचना कहते हैं वे सत्य को नहीं जानते । और भी भगवान् फर्माते हैं किः
सएहिं परियाएहिं, लोपं च्या कडेति य । तत्तं ते ण विजाणंति, ण विणीसी कयाई वि ॥