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भीमद् विजयराजेन्द्रसूरि-स्मारक-प्रथ दर्शन और -ईश्वर न तो सृष्टि की रचना करता है और न किन्हीं कों का कर्ता है । उसी प्रकार न वह प्राणियों को शुभाशुभ कर्म के फल को देनेवाला है । सभी स्वभाव से ही होता रहता है। किसी के पाप-पुन्य का उत्तरदायी भी वह प्रभु नहीं है। ये तो अज्ञान से ज्ञान का आच्छादन हो जाने के कारण प्राणी भूलभूलैया में पड़ा हुआ है। कहा भी है कि:
नक्षत्र-प्रहपञ्जरमहर्निशं लोककर्मविक्षिप्तम् ।
भ्रमति शुभाशुभमखिलं प्रकाशयत् पूर्वजन्मकृतम् ॥ फिर भी कहा है कि:
सुखस्य दुःखस्य न कोऽपि दाता, परो ददातीति कुबुद्धिरेषा ।
अहं करोमीति मिथ्याभिमानः, स्वकर्म सूत्रग्रथितो हि लोकः ।।
अर्थात् सुख और दुःख का देनेवाला कोई भी नहीं है। दूसरा सुख या दुःख देता है, यह कहना कुबुद्धि है। मैं करता हूं ऐसा समझना मिथ्या अभिमान है। सारा संसार अपने कर्मरूप सूत्र से प्रथित है । इसलिये ईश्वर को सृष्टि का कर्ता न मानकर कर्म को कर्ता मानना शास्त्रोक्त युक्तिसंगत एवं हितावह है।