________________
श्रीमद् विजयराजेन्द्रसूरि-स्मारक -ग्रंथ
दर्शन और
अपने-अपने सम्प्रदाय तथा परम्परा को ही सृष्टि के प्रारम्भ से ब्रह्मा, शिव आदि के द्वारा प्रायः प्रवर्तित कहनेवाले तथा अपने से भिन्न सम्प्रदार्थों को प्रायः अपने से हीन कहनेवाले लोगों के मत में तो ' विशुद्ध' भारतीय संस्कृति का आधार उनके ही संप्रदाय के प्रारम्भिक रूप में ढूंढना चाहिए ।
३६८
ये लोग अपने-अपने संप्रदाय से अनन्तर - भावी या भिन्न संप्रदायों को प्रायः अपने मौलिक धर्म का विकृत या बिगड़ा हुआ रूप ही समझते हैं ।
उदाहरणार्थ मनु के
चातुर्वर्ण्य यो लोकाश्चत्वारश्वाश्रमाः पृथक् ।
भूतं भव्यं भविष्यं च सर्व वेदात् प्रसिद्ध्यति || (१२/९७ ) या वेदबाह्याः स्मृतयो याच काच कुदृष्टयः ।
सर्वास्त निष्फलाः प्रेत्य तमोनिष्ठा हि ताः स्मृताः ॥
उत्पद्यन्ते च्यवन्ते च यान्यतोऽन्यानि कानिचित् । तान्यक्कालिकतया निष्फलान्यनृतानि च ।। ( १२।९५-९६)
अर्थात् चातुर्वर्ण्य और चारों आश्रमों के साथ-साथ भूत, वर्तमान और भविष्य तथा तीनों लोकों का परिज्ञान वेद से ही होता है । वेदबाह्य जो भी स्मृतियां या संप्रदाय हैं, वे तमनिष्ठ तथा नवीन होने के कारण निष्फल और मिथ्या हैं - इत्यादि वचन, युगों के क्रम से धर्म के ह्रास की कल्पना, मनुस्मृति जैसे ग्रन्थों में शूद्रराज्य की विभीषिका, पुराणों में " नन्दान्तं क्षत्रियकुलम् " ( अर्थात् नन्दों के अनन्तर वैदिक संप्रदाय के पोषक क्षत्रिय राजाओं का अन्त ), धर्मशास्त्रों में चातुर्वर्ण्य के सिद्धान्त के साथ संकरज जातियों की स्थिति की कल्पना, इत्यादि समस्त विचार-धारा उन्हीं संप्रदायवादियों का प्रतीक है, जो भारतीय संस्कृति को प्रगतिशील और समन्वयात्मक न मान कर केवल अपने-अपने संप्रदाय में ही अपनी विचारधारा को बद्ध रखते हैं ।
एकमात्र शब्द - प्रमाण की प्रधानता, असहिष्णुता की भावना और भारत के वर्तमान या ऐतिहासिक स्वरूप के समझने में वैज्ञानिक समष्टि दृष्टि का अभाव - इन बातों में ही इन लोगों का मुख्य वैशिष्ट्य दीख पड़ता है ।
यह विचित्र सी बात हैं कि हमारे कुछ आधुनिक इतिहास-लेखक तथा विचारक भी इस ( बुद्धि - पूर्वक या अबुद्धि पूर्वक ) पूर्वग्रह ( Prejudice ) से शून्य नहीं हैं । सांप्रदायिक या जातिगत पूर्वग्रह के कारण वे भारतीय संस्कृति के इतिहास के अध्ययन में