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श्रीमद् विजयराजेन्द्रसूरि-स्मारक-ग्रंथ पर्शन और होनेवाले जैन, बौद्ध, वैष्णव और सन्त आदि आन्दोलनों की उत्पत्ति और प्रसार में उपर्युक्त विषमताओं का बड़ा भारी हाथ था। समाजगत विषमताओंने ही भगवान् कृष्ण, महावीर, बुद्ध, कबीर, चैतन्य आदि महापुरुषों को जन्म दिया और उन्होंने उन विषमताओं के दूर करने में अपने महान् कार्य के द्वारा भारतीय संस्कृति की धारा की ही महत्ता को बढ़ाया।
भारतवर्ष के इतिहास में आनेवाले इसलाम और ईसाइयत के आन्दोलनों को भी हम भारतीय संस्कृति की धारा के प्रवाह से बिलकुल अलग नहीं समझते । प्रथम तो इन दोनों की आध्यात्मिकता और नैतिकता का आधार 'एशियाटिक' संस्कृति के इतिहास की परम्परा के द्वारा भारतीय संस्कृति की मौलिक धारा तक पहुँच जाता है। दूसरे इतिहास-काल में भी उनका, भारतीय बौद्ध संस्कृति का ऋणी होना कोई अस्वीकार नहीं कर सकता । तीसरे, उन दोनों में कम-से-कम ९५ प्रतिशत संख्या उन्हीं की है, जो प्राचीन भारतीय संस्कृति के ही उत्तराधिकारी हैं, और आज भी उनमें सांस्कृतिक मूल्य की वस्तुओं पर भारतीयता की काफी छाप है । हमारा तो विश्वास है कि हम सहिष्णुता से काम लेते हुए, उनकी वास्तविक धार्मिक भावनाओं को ठेस न पहुँचाते हुए, उनमें सुप्त भारतीयता को जगा सकते हैं । और वे भी भारतीय संस्कृति की धारा से पृथक् नहीं रह सकते । हमारे मत में बौद्ध, जैन आदि धों की तरह ही, भारतवर्ष की पूर्वोक्त विषमताओं से ही इन संप्रदायों के प्रसार में काफी सहायता मिली है और इनके द्वारा भारतीय संस्कृति भी प्रभावित हुई है, और उसको कई प्रकार के साक्षात् या असाक्षात् रूप से लाभ भी हुए हैं।
हम उपर्युक्त सब आन्दोलनों को भी एक प्रकार से भारतीय संस्कृति का उपकारक और आधार कह सकते हैं।
आवश्यकता है कि हम भारतीय संस्कृति के विकास को समझने के लिए उपयुक्त समष्टि-दृष्टि से काम लें। प्रत्येक भारतीय सांप्रदायिक एकांगी-दृष्टि को छोड़कर भारतीय संस्कृति के समस्त क्षेत्र के साथ अपने ममत्व को स्थापित करें और अपने को उसका उत्तराधिकारी समझें।
यह भारतीय संस्कृति स्वभावतः सदा से प्रगतिशील रही है और रहेगी। इसमें अपने जीवन की जो अबाध धारा बह रही है, उसके द्वारा ही यह भविष्य के देशीय या आन्तर् राष्ट्रिक मानवता के हित के आन्दोलनों का स्वागत करती हुई, अपनी अनन्त प्राचीन परम्परा की रक्षा करती हुई ही आगे बढ़ती जाएगी । इसी भारतीय संस्कृति में हमारी आस्था है।