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पूर्वेशिया में भारतीय संस्कृति
आचार्य रघुवीर, एम्. ए., पी. एच. डी., डी. लिट्, सदस्य, राज्यसभा ।
विक्रमाब्द १२० में वुंग सम्राट् मिंग को एक शुभ रात्रि में दिव्य स्वप्न हुआ कि पश्चिम दिशा के आकाशमार्ग से उड़ते हुए स्वर्णमय भव्यात्माने महल में प्रवेश किया । महल जगमगा उठा । चन्द्र की ज्योत्स्ना और सूर्य की रश्मियां फीकी पड़ गईं। महाराजने चरणवन्दना की । प्रातः हुआ तो ज्योतिर्विदोंने पता लगाया कि यह स्वर्णकाय आत्मा पश्चिम देश के महामुनि पारंगत शुद्धोदन - पुत्र शाक्यसिंह सम्यक् - सम्बुद्ध भगवान गौतम हैं । तत्काल महाराज मिंगने तीन महामात्यों को थिएन् चुओ अर्थात् देवभूमि जम्बूद्वीप में जाकर बौद्धसूत्र और आचार्यों का अन्वेषण करने तथा सत्कारपूर्वक लाने के लिए आदेश दिया । ये धर्मसूत्र और धर्माचार्य गवेषक राजदूत कुछ ही मास के पश्चात् भारत के दो विद्वद्वत्नों को साथ लेकर महाराज मिंग के पास पहुंचे। ये विद्वद्वत्न थे काश्यप मातंग और धर्मरत्न । महाराजने लोयांग नगर में इनके लिए श्वेताश्व-विहार की स्थापना की । हमारे पूर्व पुरुष मातंग और धर्मरत्नने देवानामिन्द्र शुक्र के समान श्वेत अश्वों पर आरूढ होकर जम्बूद्वीप से चीन की राजधानी तक यात्रा की थी । इन्हीं पर अनेक धर्मग्रन्थ और रजतसुवर्ण मरकत तथा स्फटिक की विशाल और वैभवमयी मूर्तियोंने भी यात्रा की थी । काश्यप मातंग और धर्मरत्नने ४२ खण्डों के सूत्र का निर्माण किया और चीन के राजकुल में बुद्धधर्म के आदर्शों का पौधा लगाया । काश्यप मातंग मध्य - जम्बूद्वीप के निवासी थे ।
राजनैतिक हलचल के होते हुए भी लोयांग के श्वेताश्व - विहार में धर्मकार्य बन्द नहीं हुआ । पश्चिम के देशों से पण्डित और मुनिगण आर्यमार्ग के सिद्धान्तों को लाते रहे । विक्रमाब्द २८० के लगभग मध्यभारत से हीनयान के आचार्य धर्मकालने चीन में प्रवेश किया । धर्मकाल का जन्म बड़े घराने में हुआ था । बाल्यकाल में इन्होंने वेद-वेदांगों का अभ्यास किया था। चीन में आकर इन्होंने प्रातिमोक्षसूत्र का अनुवाद किया। इस समय तक चीन में संसार - विरक्ति की भावना का सर्वथा अभाव था। चीनी संस्कृति में जीवन के भोग और आनन्द का ही स्थान था । चीन को इस भावना के समझने और स्वीकार करने में लगभग २०० वर्ष लगे ।
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