________________
संस्कृति ।
भारतीय संस्कृति के आधार
३७१
बौधायन धर्मसूत्र में एक स्थल पर ब्रह्मचर्यादि आश्रमों के विषय में विचार करते हुए स्पष्टतः कहा है
" ऐकाश्रम्यं त्वाचार्या प्राह्लादि वै कपिलो स एतान् भेदांचकार तान् मनीषी नाद्रियेत ।
तत्रोदाहरन्ति । नामासुर आस ।
19
( बौधायन धर्मसूत्र २।११।२९-३० )
अर्थात् आश्रमों का भेद प्रह्लाद के पुत्र कपिल नामक असुर ने किया था । पुराणों तथा वाल्मीकि रामायण आदि में भारतवर्ष में ही रहनेवाली यक्ष, राक्षस, विद्याधर, नाग आदि के अनेक अवैदिक जातियों का उल्लेख मिलता है । जिस प्रकार इन जातियों की स्मृति और स्वरूप साहित्य में क्रमशः अस्पष्ट और मन्द पड़ते गए हैं, यहाँ तक कि अन्त में इनको ' देवयोनि - विशेष ' [तु० विद्याधरप्सरोयक्षरक्षो गन्धर्वकिन्नराः । पिशाचो गुः सिद्धो भूतोऽमी देवयोनयः ॥ ( अमरकोश ) ] मान लिया गया । इससे यही सिद्ध होता है कि ये प्रागैतिहासिक जातियाँ थीं, जिनको क्रमशः हमारी जातीय स्मृति ने भुला दिया । अग्रवालों आदि की अनुश्रुति में भी 'नाग' आदि प्रागैतिहासिक जातियों का उल्लेख मिलता है । पुराणों में शिव का जैसा वर्णन है, वह ऋग्वेदीय रुद्र के वर्णन से बहुतकुछ भिन्न है । ऋग्वेद का रुद्र केवल एक अन्तरिक्ष - स्थानीय देवता है । उसका यक्ष, राक्षस आदि के साथ कोई भी सम्बन्ध नहीं है । परन्तु पौराणिक शिव की तो एक विशेषता यही है कि उसके गण भूत, पिशाच आदि ही माने गए हैं । वह राक्षस और असुरों का खासतौर पर उपास्य देव है । इससे यही सिद्ध होता है कि शिव अपने मूलरूप में एक प्राग्वैदिक देवता था, जिसका पीछे से शनैः शनैः वैदिक रुद्र के साथ एकीभाव हो गया ।
I
वैदिक तथा प्रचलित पौराणिक उपास्य देवों और कर्मकाण्डों की पारस्परिक तुलना करने से भी हम बरबस इसी परिणाम पर पहुंचते हैं कि प्रचलित हिन्दू देवताओं और कर्म - काण्ड पर एक वैदिकेतर, और बहुत अंशों में प्रागैतिहासिक, परम्परा की छाप है ।
प्राचीन वैदिक धर्म की अपेक्षा पौराणिक धर्म में उपास्य देवों की संख्या बहुत बढ़ गई है। वैदिक धर्म के अनेक देवता ( ब्रह्मणस्पति, पूषा, भग, मित्र, वरुण, इन्द्र ) या तो पौराणिक धर्म में प्रायः विलुप्त ही हो गए हैं या अत्यन्त गौण हो गए हैं। पौराणिक धर्म के गणेश, शिव-शक्ति और विष्णु ये मुख्य देवता हैं । वेद में इनका स्थान या तो गौण है या है ही नहीं । अनेक वैदिक देवताओं (जैसे विष्णु, वरुण, शिव ) का पौराणिक