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संस्कृति
सांख्य और जैनधर्म |
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प्रकट किया गया है,
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सांख्य में इन भावनाओं को कुछ अन्य शब्दों में प्रकट किया जाता है । पर उससे अर्थ के प्रतिपादन में विशेष अन्तर नहीं आता । सांख्य में पुरुष अर्थात् चेतनतत्त्व को परिवर्तनशील नहीं माना गया । सांख्य का परिणामवाद वस्तु के परिवर्तन स्वभाव का आधार है । पर परिणाम अचेतन तत्त्व में ही संभव है । परिणामवाद के आधार पर उत्पाद, व्यय और धौव्य का स्पष्टीकरण किस प्रकार होता है-इस का विचार कीजीये । जैन धर्म में वस्तु की जिस स्थिति को ' पर्याय ' पद से सांख्य में उसके लिये ' असत् ' शब्द का प्रयोग किया जाता है । प्रोव्य को प्रकट करने के लिये 'जैन धर्म में ' गुण ' पद के स्थान पर सांख्य में ' सत् ' पद का प्रयोग होता है । इस प्रकार सांख्यदृष्टि से प्रत्येक जड़तत्त्व कार्यरूप से ' असत् ' है अर्थात् वस्तु का कार्यरूप ' ध्रुव नहीं है । जो अर्थ जैनदर्शन में ' पर्याय ' पद से प्रकट किया है, उसका बोध यहां 'कार्य' अथवा 6 असत् ' पद से होता है । प्रत्येक जड़तत्त्व कार्यरूप से असत् रहते भी कारणरूप से' सत् ' रहता है । घट टूट जाने पर भी कारण रूप से सत् है । घट का कारणरूप घट की आकृति के रहते भी रहता है और न रहते भी बना रहता है। इस प्रकार वस्तु के कार्यरूप में उत्पाद, विनाश और कारणरूप में धौव्य स्पष्ट होता है । सांख्यदृष्टि से समस्त परिणामी जड़ जगत् के तीन मूल तत्त्व हैं - सत्त्व, रज, तमस् । इन को ' त्रिगुण ' कहा जाता है । जैनधर्म में ' गुण ' श्रीव्य का रूप है । यहां भी समस्त परिणामी जगत् त्रैगुण्य रूप में ध्रुव है । इसके त्रैगुण्य रूप का कभी परिवर्तन नहीं होता। जिन में परिवर्तन होता है, वे पर्याय अथवा कार्य अनन्त हैं और समस्त उत्पाद एवं विनाश उन्हीं का रूप है । सत्व, रजस्, तमस् को सांख्य में सुख-दुःख - मोहात्मक कहा गया है। आचार्य समन्तभद्र के प्रतिपादन के अनुसार वस्तु की व्यात्मकता इस रूप में भी स्पष्ट होती है ।
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जैन धर्म जीव को चेतन, कर्त्ता व भोक्ता मानता है । चेतना जीव का असाधारण लक्षण है । वह जानने व देखने आदि के रूप में प्रकट होती है । यह चेतना अथवा ज्ञान जीव का स्वरूप ही है । जैन दृष्टि से चैतन्य, ज्ञान में कोई पर्याय -भेद नहीं है और जीव का स्वरूप इन से कोई भिन्न नहीं है । हर्ष-विषाद, राग-द्वेष आदि अनेक पर्यायवाला ज्ञान अथवा चेतनस्वरूप एक आत्मा ही अनुभव से सिद्ध होता है । चैतन्य, बुद्धि, ज्ञान, अध्यवसाय आदि सब उसीके पर्याय कहे जाते हैं । अतः जीव अथवा आत्मा चेतन - ज्ञानस्वरूप ही माना जाता है । उसकी दो अवस्था होती हैं - एक बहिर्मुख, दूसरी अन्तर्मुख । जब यह पदार्थ को ग्रहण करता है, तब वह बहिर्मुख है, यह उसका ज्ञान स्वरूप है । इस अवस्था में 'यह घट है, यह पट हैं इत्यादि रूप से वस्तु की व्यवस्था होती है । अन्तर्मुख
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