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उपासकदशाङ्ग सूत्र में सांस्कृतिक जीवन की झांकी
नरेन्द्रकुमार भानावत उपासकदशाङ्ग सूत्र जैन आगमों में सातवा अंग सूत्र माना जाता है । इस सूत्र में भगवान् महावीर के प्रमुख दस श्रावकों-आनन्द, कामदेव, चुलनीपिता, सुरादेव, चुल्लशतक, कुण्डकोलिक, सद्दालपुत्त, महाशतक, नन्दिनीपिता, सोलिहिपिया-का जीवनवृत्तान्त वर्णित है। इस सूत्र का जब हम मननपूर्वक अध्ययन करते हैं तब ढाई हजार वर्ष पूर्व की सांस्कृतिक चेतना हमारे सामने साकार हो उठती है। हमारा स्वर्णिम अतीत शत्-शत् मुखों से आत्मगायन करता दृष्टिगत होता है। श्रावकों की जीवन-झांकी में तत्कालीन लोकरुचि रमत करती हुई, युगीन शिल्पकला मुस्कराती हुई, सामाजिक ऐश्वर्य उभरता हुआ और वैयक्तिक साधना इठलाती हुई प्रतीत होती है । उस समय का सांस्कृतिक जीवन आकाश के आदर्श को एक ओर अपने में समेटे हुए था तो दूसरी ओर धरती की धड़कन को अवलम्बन दिये हुए था। उस समय का सांस्कृतिक जागरण न निरा प्रवृत्तिमूलक था-न निरा निवृत्तिमूलक, न कोरा भौतिकवादी था न केवल आध्यात्मवादी । प्रत्युत उस समय के सांस्कृतिक जीवन में भौतिकता और आध्यात्मिकता, प्रवृत्ति और निवृत्ति, आदर्श और यथार्थ दोनों का समपात संतुलन एवं सुखद समन्वय था। जब हम तत्कालीन जन-जीवन का सूक्ष्म निरीक्षण और निकटता के साथ स्पर्श करते हैं तो हमें निम्न सांस्कृतिक विशेषताओं का पता चलता है।
नगर-निर्माण कला-उस समय का कला-कौशल उन्नति की चरम-सीमा पर पहुंचा हुआ था। नगर व्यापार के केन्द्र हुआ करते थे। उस समय के नगर प्रकृति की गोद में स्थित होते थे । जब हम वाणिज्यग्राम नगर का वर्णन पढ़ते हैं तो हमें मालूम होता है कि वह वनों तथा उपवनों से सुशोभित था, जिसके चारों ओर नगर कोट थी, जिसका निर्माण शिल्पियोंने किया था। प्रत्येक नगर में चैत्य होता था, जहां साधु-संन्यासी, श्रावक आकर दर्शन करते थे। इसके अलावा नगरों में पौषधशालाएँ होती थीं जहां श्रावक पौषध करते थे। कुम्भकारों की दुकानें नगर से बाहर हुआ करती थीं। सद्दालपुत्त की पांच सौ दुकानें पोलासपुर नगर के बाहर थीं, जिन पर बहुत से नौकर काम किया करते थे । उस समय की कला का उभार हमें मिट्टी के बर्तनों में भी मिलता है। सद्दालपुत्त की दुकानों में जल भरने के