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रूपं रूपं प्रतिरूपो बभूव
श्री वासुदेव शरण अग्रवाल, काशी विश्वविद्यालय
यह जगत अनन्त रूपों का भंडार है। श्री हार्ट की परिभाषा के अनुसार जिस वस्तु का ज्ञान होता है अथवा जो वस्तु उत्पन्न हुई है वे सब मूर्तियां या मूर्त रूप हैं ।
मूर्त रूपों की समष्टि ही जगत है । प्रजापति के दो रूप कहे गये हैं- मूर्त और अमूर्त | अमूर्त का मूर्त में आना यही सृजन कार्य हैं, जो सृष्टि के आदि से चल रहा है । नाना रूप देश और काल में उत्पन्न हुए हैं, उत्पन्न हो चुके हैं, उत्पन्न हो रहे हैं एवं भविष्य में भी यही क्रम चलता रहेगा । ये जितने रूप हैं, सब जिस स्रोत से प्रकट हुए हैं, वह प्रतिरूप है । ये प्रत्येक रूप जिसकी अनुकृति हैं वह मूल प्रतिरूप स्वयं अमूर्त होते हुए भी सब रूपों की समष्टि है । ये रूप नकल हैं; वह जो असल है वह प्रतिरूप है । वह प्रतिरूप ही रूप-रूप में परिणत हो गया है । वह प्रतिरूप मूल प्रतिबिंब है जिसकी छाया से सब रूप बने हैं ।
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वह प्रतिरूप एक है । उसमें नाना भाव नहीं। वह किसी एक रूप के साथ तदाकार नहीं होता; क्यों कि सभी रूपों के साथ उसका तादात्म्य है । वह मूल प्रतिरूप अमिट है । देश और काल से वंचित नहीं होता । नकल बनती और बिगड़ती है । उस मूल या असल का सत्य रूप कभी परिवर्तित नहीं होता । असल एक होता है। उसकी नकल या नमूने अनेक हो सकते हैं । प्रतिरूप एक था, रूप अनेक हैं । प्रतिरूप अमृत था, रूप मर्त्य हैं । प्रतिरूप अपरिवर्तनशील था, रूप परिवर्तनशील हैं। उस एक प्रतिरूप में सब रूपों का अन्तर्भाव है ।
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सब व्यक्त भावों की संज्ञा रूप है। जितने व्यक्त भाव हैं, अव्यक्त से उत्पन्न हुए हैं और अव्यक्त में लीन हो रहे हैं। गणित के शब्दो में कल्पना करें तो जितने अंक हैं सब रूप हैं । सब अंकों की समष्टि शून्य है । शून्य में सब अंकों का अन्तर्भाव है। ऐसा कोई अंक नहीं जो शून्य में न हो । स्वयं शून्य रूपहीन या अल्प है। अत एव यह भी चरितार्थ होता है। कि जो सब रूपों को अपने में धारण करता है वह स्वयं अल्प है। दूसरा उदाहरण लें। एक ओर गति गति है । जिस दिशा में वह प्रयुक्त होती है उस दिशा में उस ओर उसके व्यक्त
1. Any thing known or born is an image.
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