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श्रीमद् विजयराजेन्द्रस्-िस्मारक-प्रथ दर्शन और (१७) घयविहिः-घृत का परिमाण करना । आनन्दने गायों के शरदऋतु में उत्पन्न धी का नियम किया था।
(१८) सागविहिः-शाकभाजी का परिमाण निश्चित करना । आनन्दने वथुआ, चू चू (सुस्थिय ) और मण्डुकी शाक का परिमाण किया था । चू चू और मण्डुकी उस समय में प्रसिद्ध कोई शाकविशेष हैं।
(१९) माहुरयविहिः-पके हुए फलों का परिमाण करना । आनन्दने पालंग (बेल फल ) फल का परिमाण किया था ।
(२०) जेमणविहिः-खाने योग्य पदार्थों का परिमाण निश्चित करना । आनन्दने तेल आदि में तलने के बाद छाछ, दही और कांजी आदि खट्टी चीजों में भिगोये हुए मूंग आदि की दाल से बने हुए बड़े और पकौड़ी आदि का परिमाण किया था।
(२१) पाणियविहिः-पीने के लिए पानी की मर्यादा करना । आनन्दने आकाश से गिरे हुए और तत्काल ग्रहण किए ( टांकी आदि में ) जल की मर्यादा की थी।
(२२) मुहवासविहिः-मुख सुवासित करने योग्य पदार्थों का परिमाण करना । आनन्दने पंचसौगन्धिक अर्थात् लौंग, कपूर, कक्कोल ( शीतल चीनी ), जायफल और इलायची डाले हुए पान का परिमाण किया था।
इन मर्यादाओं से हम अनायास ही इस निष्कर्ष पर पहुंच जाते हैं कि उस समय के श्रावकों का रहन-सहन कितना ऐश्वर्यशाली था ! वे खाने-पीने की कितनी चीजों का प्रयोग करते थे। स्नान करते समय कितनी वस्तुओं की आवश्यकता होती थी! शतपाक और सहस्रपाक तेल की कल्पना करना तो आज के विकासकालीन और वैज्ञानिक युग में भी व्यर्थ है । तेल को सुखाने के लिए भी अलग पीठी की आवश्यकता उस समय के लोगों को थी। स्नान के लिए आठ घड़े जल का परिमाण उनकी संयमित वृत्ति का परिचाचक है । फूलों और आभूषणों का प्रयोग पुरुष भी करते थे। मटर, मूंग और उड़द की दाल उस समय ज्यादा प्रचलित थी। गायों का शरदऋतु में उत्पन्न धी ही वे प्रयोग में लाते थे । चू चू और मण्डुकी नामक शाक-माजी आज कल्पनातीत बन गई हैं। दहीवड़ा, कांजीवड़ा और दालिया का प्रयोग भी वे करते थे। पीने के लिए वर्षा का इकट्ठा किया हुआ जल पवित्र और हितकर माना जाता था । लौंग, कपूर, जायफल, इलायची के प्रेमी थे, पर कक्कोल (शीतल चीनी) नामक वस्तु का आज अभाव है। इस प्रकार श्रावकों का जीवन कितना उच्च था। संयमित था ! मर्यादित था ! इतना वैभव और विलास होते हुए भी वे विनाश और पापमार्ग की ओर नहीं प्रवृत्त हुए; अपितु निवृत्ति मार्ग की ओर उन्मुख रहते आये। आज के हमारे जटिल जीवन से उनका जीवन कईगुणा सुखी और आनन्दित था।