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संस्कृति
रूपं रूपं प्रतिरूपो बभूव । जाता है । जो केन्द्र है वह एक है। एक केन्द्र से नाना परिधि का आविर्भाव होता है। नियम है-' एकं वा इदं विबभूव सर्वम् ।' एक ही सर्व हुआ है। एक प्रतिरूप सर्वरूप बना है।
शिल्पी निर्माण की इच्छा से जब ध्यान करता है, उसके ध्यान में सर्व रूप समा. विष्ट रहते हैं । उसका प्रज्ञान या मन जब एक रूप को पकड़ता है तो वही रूप स्फुट हो कर चित्र या पाषाण में अभिव्यक्त हो जाता है, शेष रूप हट जाते हैं। समस्त रूपों की समष्टि में से जब एक रूप को शिल्पी एक बिन्दु पर प्रकट कर देता है, वहीं शिल्प की अभिव्यक्ति हो जाती है । उस रूप में अपने प्रतिरूप की जैसी पूर्ण अभिव्यक्ति होगी, उतनी ही श्रेष्ठ वह शिल्पकृति मानी जायगी । रूप वही अच्छा है जो अपने प्रतिरूप का अधिकतम परिचय दे सके, जिस में उसका सर्वोतम दर्शन मिल सके। वही शिल्पकृति विश्वरूप या प्रतिरूप के अधिक निकट है जिस में व्यक्ति का रूप कम से कम हो। व्यक्ति का रूप एक से परिच्छिन्न, सीमित, अतिसीमित होता है। वह समष्टि से अधिक से अधिक विच्छिन्न रहता है। व्यक्ति विशेष की प्रतिकृति मूर्ति की यही स्थिति होती है । वह मानों विश्वात्म भाव से दूर रहती है । यही उसके रूप की दरिद्रता है अथवा उसकी भावाभिव्यक्ति की सीमा है । भारतीय शिल्प में प्रतिकृति को इसी कारण अस्वये कहा गया है । वह जड़ या मर्त्य भाव से आक्रांत होती है और नितान्त पार्थिव एवं स्थूल होती है । जैसे व्यक्ति देश और काल दोनों में सीमाबद्ध है, ऐसे ही भाव जगत् में उसकी प्रतिकृति भी विजड़ित होती है।
___जो प्रतिरूप है उसकी सब से अधिक अभिव्यक्ति प्रतीक द्वारा ही की जा सकती है। प्रतीक का ही अपर नाम लिंग या केतु है । प्रतीक ही अमूर्त की सच्ची मूर्ति है । लिंग में व्यक्तिगत रूपों का अभाव होने से वह प्रतिरूप के सब रूपों को प्रकट कर सकता है। एकएक रूप तो एक-एक मूर्ति से प्रगट किया जा सकता है, किन्तु सर्वरूपमय प्रतिरूप की अभिव्यक्ति लिंग मूर्ति से ही हो सकती है । जो स्वयं मूर्त भाव से कम से कम आक्रांत होता है वही प्रतिरूप का सब से अधिक परिचायक है। भारतीय शिल्पीने व्यक्तियों की प्रतिकृति या रूपों से मोह करना नहीं सीखा । उसके शिल्प का निर्माण उस भाव जगत् में होता है जिस में वह सर्वरूप का ध्यान करता है । सर्वरूप का तात्पर्य समाजव्यापी परिनिष्ठित रूप से है, व्यक्तिविशेष के सादृश्य से नहीं । युग विशेष में स्त्री-पुरुषों के प्रतिमानित सौंदर्य का ध्यान करके भारतीय शिल्पी उसे चित्र या शिल्प में प्रयुक्त करता है । व्यक्तिविशेष के रूप को वह अपने तक्षण या चित्र में नहीं उतारता । वह तो समाज में आदर्शभूत सर्वरूपों का एक बिम्ब कल्पित करता है। रूप की वह भांति युग की भांति बन जाती है । मथुरा की यक्षीप्रतिमाएं स्त्रीविशेष की प्रतिकृति नहीं । वे नारी-जगत् की आदर्श प्रतिकृति