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श्रीमद् विजयराजेन्द्रसूरि-स्मारक-ग्रंथ
दर्शन और जैन धर्म की मान्यताओं के अनुसार संसार की प्रत्येक वस्तु परिवर्तनशील है। इसमें उत्पाद और विनाश हुआ करते हैं। पर इस परिवर्तन के साथ उसमें एकरूपता भी बनी रहती है । उस एकरूपता के आधार पर ही हम होनेवाले परिवर्तनों को पहचानते हैं । इस प्रकार वस्तु या द्रव्य तीन रूप में हमारे सामने आते है-उत्पाद, विनाश और धौव्य । उत्पाद और विनाश अथवा व्यय को बतलानेवाली स्थिति जैन धर्म में पर्याय ' कही जाती है और वह अवस्था जो इन पर्यायों के चलते रहते बनी रहती है उसका नाम 'गुण' है। उदाहरण के लिये एक जीव द्रव्य ले लीजीये । उसके ज्ञान, सुख आदि गुण हैं और नर, नारकी आदि पर्याय हैं । फलतः प्रत्येक द्रव्य गुण और पर्याय का स्वरूप है। चाहे इसको सत् कहा जाय अथवा उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य से संयुक्त कहा जाय । एक ही बात है । इस में एक के कहने से दूसरी का कथन स्वतः हो जाता है । इस प्रकार द्रव्य सत् है, द्रव्य उत्साद, व्यय और ध्रौव्य से संयुक्त है अथवा द्रव्य गुण और पर्याय का आश्रय या स्वरूप है । इन सब कथनों में एक ही अर्थ प्रतिपादित होता है ।
परिवर्तनशीलता में उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य को समझाने के लिये पतञ्जलिने व्याकरण महाभाष्य में लिखा है कि सुवर्ण पिण्ड की कुण्डल, रुचक, स्वस्तिक आदि आकृतियां बदलती रहती हैं, पर द्रव्य सुवर्ण वहां बना रहता है । इस प्रकार द्रव्य या वस्तु का स्वरूप यथात्मक है । कुण्डल, रुचक, स्वस्तिक आदि आकृतियों के आधार पर उत्पाद, विनाश और सुवर्ण प्रत्येक अवस्था में बने रहने में ध्रौव्य की स्थिति स्पष्ट होती है।
वस्तु की इस त्रयात्मकता को आचार्य समन्तभद्रने एक उदाहरण द्वारा इस प्रकार समझाया है। एक राजा के एक पुत्र था और एक पुत्री । उसके पास एक सुवर्ण घट था। पुत्री उस सुवर्ण घट को चाहती थी । पुत्र चाहता था कि इस घट को तुड़वा कर उसके लिये मुकुट बनवा दिया जाय । राजाने पुत्र के हठ को स्वीकार कर घट को तुड़वाकर मुकुट बनवा दिया। घट के नाश से पुत्री को दुःख होता है। मुकुट के उत्पादसे पुत्र को सुख व प्रसाद होता है । परन्तु राजा केवल सुवर्ण का इच्छुक है। उसे घट के टूटने से न दुःख है और मुकुट के उत्पाद से न सुख । सुवर्ण वैसा ही बना है; इसलिये इन पर्यायों में वह उदासीन है। आचार्य के इस वर्णन में वस्तु के व्यात्मकत्व ( एक घट का विनाश, मुकुट का उत्पाद और सुवर्ण का ध्रौव्य ) की दो भावना सन्मुख आती हैं। वस्तु के इस परिवर्तन स्वभाव में उत्पाद और विनाश पर्याय है, सुवर्ण ध्रुव है । दूसरी भावना है-पुत्री को दुःख, पुत्र को सुख और राजा को औदासीन्य अथवा मोह-इस प्रकार वस्तु की सुख, दुःख, मोहात्मकरूप में भी ध्यात्मकता स्पष्ट होती है।