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संस्कृति
सांख्य और जैनधर्म । को ही भोग होता है, अन्य बुद्धि आदि को नहीं । परन्तु प्रतिवादियों के आक्षेप से पराहत समझकर तात्कालिक सांख्य के व्याख्याकार आचार्योंने आत्मा के भोग की अन्यथा व्याख्या कर डाली । उनके विचार से समस्त भोग बुद्धि में होते हैं। पर बुद्धि स्वभावतः अचेतन है। उसमें स्वतः किसी प्रकार के भोग का सामर्थ्य संभव नहीं। जब चेतन की छाया के आपादन से उसमें यह शक्ति हो जाती है, तब बुद्धि के भोग को ही प्रान्ति से आत्मा अपना समझता है। ऐसा उन आचार्योंने स्वीकार किया और अपने विचार से उन्होंने आत्मा को विकारी होने से बचा लिया।
यदि इस प्रतिपादन को थोड़ा सूक्ष्म दृष्टि से देखा जाय तो यह स्पष्ट हो जाता है कि उन आचार्योंने वस्तुस्थिति को शीर्षासन करा दिया है। आईये, इस पर विचार कीजिये । सांख्य का अध्ययन करनेवाला प्रत्येक व्यक्ति इस बात को अच्छी तरह जानता है कि प्रकृति की समस्त सृष्टि-रचना ' परार्थ' है । 'परार्थ' पद के अभिप्राय से कोई सांख्याध्येता अपरिचित नहीं रहता। 'पर' आत्मा है, उसके लिये ही यह समस्त जगत् की रचना है। दूसरे रूप में इसी अर्थ को इस प्रकार वर्णन किया गया है कि आत्मा के भोग और अपवर्गरूप प्रयोजन को पूरा करने के लिये जगत् की रचना है। अब उन आचार्यों के अनुसार यदि वास्तविक भोग बुद्धि को होता है तो प्रकृति की सृष्टि-रचना 'परार्थ' कहां रही ! बुद्धि तो प्रकृति का ही रूप है । यदि वस्तुतः उसीके लिये यह भोग है तो यह रचना 'स्वार्थ' होगई, 'परार्थ ' नहीं रही, फिर बुद्धि में भोग का स्वतः सामर्थ्य नहीं । चेतन उसके भोग के लिये छाया आपादन करता है और उसे भोग करने का सामर्थ्य देता है। इस रूप में चेतन बुद्धि के उपयोग में आने का एक साधन मात्र रह जाता है । जब कि आत्मा साध्य और बुद्धि साधन थी । इन आचार्योंने आत्मा को विकार से बचाने के धोखे में उसे साध्य से साधनमात्र बना डाला । जिस आत्मा के लिये यह सब प्रकृति थी, अब वह आत्मा ही प्रकृति के लिये साधारण उपयोग मात्र की वस्तु रह गया। इस लिये वस्तुस्थिति यह है कि आत्मा को भोग होना ही इस बात को स्पष्ट करता है कि आत्मा के अपने स्वरूप में किसी प्रकार का अन्तर या विकार नहीं आया है। क्योंकि भोग केवल अनुभूति है और यह
आत्मा का अपना स्वरूप है । यदि आत्मा अपने स्वरूप से च्युत हो जाय तो भोग असंभव है । भोग आत्मा के अपने वास्तविक स्वरूप में अवस्थित होने का प्रमाण है । मध्यकालिक व्याख्याकार आचार्योंने 'बुद्धि' को आत्मा बना दिया और आत्मा को बुद्धि-स्थान में ला पटका । इस प्रकार वस्तुस्थिति को शीर्षासन करा दिया गया। - भोक्ता होने के समान आत्मा का भी है । सांख्यदृष्टि से आत्मा के कर्तृत्व के आधार