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श्रीमद् विजयराजेन्द्रसूरि-स्मारक-ग्रंथ दर्शन और प्रत्येक धर्म के दो अंग होते हैं-आचार और विचार । जैन के आचार का मूल है अहिंसा और विचार का मूल है स्याद्वाद । पहले हम यहां प्रथम अंग को ले कर ही कुछ विचार प्रस्तुत करते हैं । जैनधर्म आचार की दृष्टि से किसी प्राणी-जीवन के साथ खिलवाड़ नहीं करना चाहता । इस विषय में उसका मूलभूत उपदेश अहिंसा है। सब को सब के जीवनों की रक्षा करने की भावना ही इसमें अन्तर्निहित है । मन, वचन और कर्म किसी भी तरह से कोई अन्य को कष्ट न पहुंचा पावे । यदि वह ऐसा करता है अर्थात् कष्ट पहुंचाता है, अपनी सुविधा और आराम के लिये दूसरे की उपेक्षा करता है तो समझना चाहिये कि वह अधर्म का ही आचरण करता है और तब उस अधर्म का फल भोगने के लिये भी उसे तैयार रहना चाहिये । अभिप्राय यह है कि चाहे वह किसी भावना से भी हिंसा का प्रयोग करे, उसे उस अधर्माचरण का फल भोगना ही होगा।
अहिंसा की इस भावना को सांख्य ने पहले ही बहुत महत्व दिया है । वैदिक कर्मानुष्ठान यद्यपि मूल में सर्वथा अहिंसात्मक रहे हैं, पर मानव की दुर्बलताओंने उसे अनेक अंशों में हिंसायुक्त बना दिया। तब समाज में एक विवाद ऊठ खड़ा हुआ कि इसमें श्रेयस्कर क्या है ! उस अति प्राचीनकाल के समाज के कतिपय नेताओं का यह विचार सामने आया कि वैदिक कमार्नुष्ठानों में हिंसा विधेय है, इस लिये वह अधर्माचरण नहीं। और इस लिये उसका दुःखरूप फलभोग भी नहीं होगा। उनकी दृष्टि से विधेय होने के कारण वस्तुतः उसे हिंसा ही नहीं माना जाना चाहिये, तब उसके दुःखरूप फल भोग का प्रश्न ही नहीं उठता ।
इन भावनाओं के विपरीत सांख्य में विधेय हिंसा को भी वस्तुभूत हिंसा माना गया है। उसका दुःखरूप फलभोग निश्चित है। इस प्रकार की हिंसा का भी अनुष्ठान करके उसके दुःखरूप फल से वचा नहीं जा सकता। सांख्य में उसका विवेचन इस प्रकार है-'मा हिंस्यात् सर्वभूतानि ' 'सर्वाणि भूतानि मित्रस्य चक्षुषा समीक्षन्ताम् ' ' अहिंसा परमोधर्मः श्रुत्युक्तः स्मात एव च ' इत्यादि अनेक श्रुति-स्मृति वाक्यों में अहिंसा को परम संमान्य धर्म स्वीकार किया गया है । परन्तु कतिपय यागों में बलि का विधान दृष्टिगोचर होता है । ' अग्निषोभीयं पशुमालमेत भूतिकामः' । यह निश्चित है कि इस प्रकार के वाक्य वेद की मूल संहिताओं में कहीं उपलब्ध नहीं होते । इस लिये इन वाक्यों की अपेक्षाकृत प्रामाणिकता में संदेह किया जा सकता है। पर इसमें संदेह नहीं कि कोई ऐसा समय अवश्य वेदानुयायी समाज में रहा है, जब वह स्वभाव-सुलभ मानव दुर्बलताओं की प्रवृत्तियों के वशीभूत हो कर आर्ष सदुपदेशों को भी इच्छानुसार अपने मनमाने रूप में समझ कर उसी के अनुसार आचरण करने लगा। सांख्य में मानवप्रवृत्ति की दृष्टि से ही इस विषय पर विचार किया गया है। कतिपय