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भीमद् विजयराजेन्द्रसूरि-स्मारक-प्रय दर्शन और संयोगवश कुछ काल व्यतीत होने पर एक महान् जिनकल्पी-मुनि गोचरी के लिए सुभद्रा के घर पधारे । वह ज्योंहि भिक्षा देने के लिए समीप आई त्योंहि उसने देखा कि मुनिराज के नेत्र में रजकण पड़ गया है। उससे नेत्र को हानि पहुंच सकती थी। अतः उसने बड़ी चतुराई से जीभ द्वारा वह निकाल दिया। उस समय दोनों के मस्तक भिड़ गये थे। इस लिए सुभद्रा के ललाट में लगा कुंकुम मुनि के ललाट में भी लग गया। सास को मनचाहा मौका मिला और उसने अपने पुत्र को दिखाते हुए कहा कि कुलटाने कुल कलसित किया है । सुभद्रा को जब इस झूठी लांछना की खबर मिली तब वह शान्ति के साथ कायोत्सर्ग करने के लिए ध्यानधर कर बैठ गयी।
_प्रभात होने पर द्वारपाल जब नगर का फाटक खोलने गया तब उसके लाख पयत्न करने पर भी किवाड़ हिले तक नहीं। सब आश्चर्यचकित हो गए । राजा जितशत्रु को भी इसकी खबर पहुंची। उसी समय आकाशवाणी हुई-" यदि कोई पतिव्रता, धर्मनिष्ठा और शीलवती स्त्री कच्चे धागे से चलनी में पानी निकालकर सींचे तब फाटक खुल सकते हैं, अन्यथा नहीं । " आकाशवाणी सुनकर अपने को सती समझनेवाली बहुत औरतें आई, मगर सब निष्फल हुई। अन्त में सुभद्रा इसमें सफल हुई।
स्त्रियों को दीक्षा देने के विषय में भगवान बुद्ध को भी डर था, किन्तु महावीर स्वामी इस बात में निर्भय थे। महावीर स्वामी के जीवनकाल ही में लाखों स्त्री सन्यासिनियां पुरुषों की तरह धर्मप्रचार में संलग्न थीं। जो चार संघ थे उनमें मुनि श्रमण और साध्वी श्रमणी कहे जाते थे और श्रावक और श्राविका गृहस्थाश्रम में रहकर धर्मकार्य करते थे । आज भी श्रमणिकाएं धर्मप्रचार करती हैं। इनका कर्तव्य है कि गृहस्थ जैनों के घरों में जांय और चेष्टा करें कि जैन नी, बधू, कन्या को उचित शिक्षा तथा उपदेश मिलें। कन्या-शिक्षा के लिये वे बहुत प्रयत्नशील रहती हैं । जैन स्त्री-यतियों का यह कार्य सब धर्मावलम्बियों के लिए अनुकरणीय है। उपरोक्त कथा की नायिका सुभद्रा इसी कोटि की गृहस्थ रमणी थी। गृहस्थ धर्म में स्थित रहकर और आदर्श पतिव्रता नारी रहते हुए ही वह अपने धर्म पर दृढ़ रह सकी और अपने कल्याण के साथ-साथ कुल और जाति के मुख को उसने उज्ज्वल किया । यह सब महावीर स्वामी की उदार भावना का फल था। जिसकी तुलना संसार के धार्मिक अथवा इतर इतिहास में मिलना दुर्लभ है।