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संस्कृति
भारत की अहिंसा संस्कृति । कारण भारत में यज्ञ कुर्वानी आदि धार्मिक अनुष्ठानों, आहार, चिकित्सा व शिकार आदि मनोविनोद के लिये की जाने वाली हिंसक प्रवृत्तियों ने जोर पकड़ा तभी उनके विरोध में भारतीय चेतना सक्रिया हो उठी। आर्यजन की हिंसक प्रवृत्तियों के विरुद्ध होनेवाली प्रतिक्रिया का यह परिणाम मालूम देता है। हिंसानिवृत्ति और लोककल्याण के लिये श्रमणों के समान वैदिक कवियों ने भी पश्च यज्ञों का विधान किया । बृहदारण्यक उपनिषद् में पञ्च यज्ञों के उद्देश्य की व्याख्या करते हुए कहा है कि यह आत्मा सब भूतों का लोक है । अर्थात् गृहस्थी मनुष्य सब जीवों का, सब आश्रमों का एक मात्र अवलम्बन है। यह जो हवन व यजन करता है उसमें देवों का लोक (हित) होता है । यह जो स्वाध्याय करता है उससे ऋषियों का हित होता है । यह जो पितरों के लिये अन्नादि प्रदान करता है व सन्तान की इच्छा करता है उससे पितरों का हित होता है । यह जो मनुष्यों को वास व भोजन देता है उससे मनुष्यों का हित होता है । यह जो पशुओं के लिए तृण और जल देता है उससे पशुओं का हित होता है। यह जो घरों में रहनेवाले पशु, पक्षी तथा चींटियों तक के लिए अन्नजल देता है उससे उन सब का हित होता है । जैसे मनुष्य अपने लिए हित चाहता है, ऐसे ही ऐसा जानने वाले के लिये सभी प्राणी हित चाहते हैं। मनुस्मृति में लिखा है कि गृहस्थ में रहते हुए मनुष्य से प्रतिदिन पांच प्रकार की हिंसा होती है। ओखली, चक्की, चूल्हा, झाडू और जलभरण ये हिंसा के कारण हैं। इन हिंसाओं के निराकरण के लिये महर्षियों ने प्रतिदिन पञ्च यज्ञ करना बतलाये हैं। जिन से गृहस्थ के कल्याण की वृद्धि होती है । उन यज्ञों के नाम ये है- ब्रह्मयज्ञ, देवयज्ञ, पितृयज्ञ, भूतयज्ञ और अतिथियज्ञ । शास्त्रों के पठन-पाठन तथा आत्मचिन्तन का नाम ब्रह्मयज्ञ है । पितृतर्पण को पितृयज्ञ कहते हैं । हवन व यजन करना देवयज्ञ है। समस्त जीवों के कल्याणार्थ अन्न, जल, वस्त्र आदि का दान भूतयज्ञ है। अतिथि अर्थात् साधुसन्त आदि आगन्तुकों के लिये सत्कारपूर्वक आहार आदि देना अतिथि यज्ञ है। देवता, पितर और मनुष्यों को देकर भोजन करनेवाला गृहस्थ अमृत भोजन करता है। जो केवल अपना पेट पालने वाला है और अपने ही लिये रसोई बनाता है वह पापमय भोजन करता है।
१. अथो अयं वा आत्मा सर्वेषा भूतानां लोकः ।......यथाह वै स्वाय लोकायारिष्टिमिच्छे देव हैवंविदे सर्वाणि भूतान्यशिष्टिमिच्छन्ति ॥ बृहदारण्यक १, ४, १६
२. (अ ) मनुस्मृति ३, ६८-७४ । (आ) स्कन्धपुराण-काशी खण्ड-पूर्वार्द्ध, अध्य० ३८ ३. (अ) ऋग्वेद १०, ११७ ५-६ । “ केवलाघो भवति केवलादी।" (आ) पितृदेवमनुष्येभ्यो दत्त्वाश्नात्यमृतं गृही ।
स्वार्थ पचन्नधं भुते केवलं स्वोदरंभरिः ॥ स्कन्दपुराण काशी खण्ड पूर्वार्ध ३८, ३०