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संस्कृति भारत की अहिंसा संस्कृति ।
३१५ व्रात्य संस्कृति का एक महान् पुरुष था । वह तप, त्याग, ब्रह्मचर्य मार्ग का प्रवर्तक था। उसने घोर तपस्या द्वारा मृत्यु का सदा के लिये अन्त कर दिया था, इस लिये वह यम के नाम से प्रसिद्ध हुआ। वह आदि ब्रह्मा विवस्वत मनु का पुत्र था, इस लिये वैवस्वत कहलाया। इस यम का और इसके वंशजों का उल्लेख शतपथ ब्राह्मण १३. ४. ३. ६ में, ऋग्वेद १०. १० तथा अथर्ववेद १८. २ में मिलता है । जैन परम्परा में यह बाहुबली के नाम से प्रसिद्ध है। वेन भी उसके समान ही व्रात्यसंस्कृति को माननेवाला था । वह यद्यपि अपने युग का एक बड़ा मेधावी पुरुष था', ऋग्वेद ४. ५८, ४ में वर्णित है कि देवजनने पणियों द्वारा छुपाई हुई रहस्यमयी विद्या अर्थात् आत्मविद्या को इन्द्र, सूर्य और वेन इन तीन स्रोतों से प्राप्त किया था। वेन वड़ा दानी, विद्वत्प्रेमी तथा सन्तों का भक्त था, परन्तु वह इन्द्रोपासना, तदर्थ होनेवाली याज्ञिक हिंसा तथा जातिवाद एवं मानसिक संकीर्णता का विरोधी था । इसलिये पीछे के वैदिक विद्वानोंने उसे अधर्म के वंश में उत्पन्न होनेवाला और अधार्मिक कहा है। उसने अध्यात्मवादी होने के कारण तत्कालीन प्रचलित अध्यात्मपद्धति के अनुसार अपने राज्य में घोषणा की थी कि अहं ( आत्मा ही ) यज्ञपति है, प्रभु है । अहं ( आत्मा ) के अतिरिक्त और कोई यज्ञ का भोक्ता नहीं। इसलिये अन्य देवों के लिये यज्ञ, हवन, दान न करके अहं अर्थात् आत्मोपासना ही श्रेयस्कर है। उसके राज्य में पुरुषों के समान स्त्रियों को भी सब अधिकार प्राप्त थे। वैधव्य की दशा में वे भी पुनर्विवाह कर सकती थी । इसके अतिरिक्त उसके राज्य में सामाजिक विषमता नहीं थी । सभी जातियों के लोग आपस में अनेक विवाहसम्बन्ध करने में स्वतन्त्र थे। जिसके फलस्वरूप तत्कालीन भारत में अनेक संकर जातियों का जन्म हुआ। इन बातों से रूष्ट होकर ऋषिगणने मन्त्रपूत कुशा से उसका वध कर डाला था ।
१. यास्ककृत निघण्टु ३. १५ में मेधावी नामों का उल्लेख करते हुए 'वेन' शब्द को भी संमिलित किया है। २. त्रिधा हितं पणिभिर्गुह्यमानं गवि देवासो घृतमन्वविन्दन् ।
इन्द्र एक सूर्य एकं जजान वेनादेकं स्वधया निष्टतक्षुः ॥ ३. प्र तद् दुःशीमे पृथवाने वेने प्र रामे वोचमसुरे मघवासु ॥ ऋ. १०. ९३. १४ ।
इस मन्त्र में सूक्तद्रष्टा ऋषिने दुःशीम, पृथवान, वेन और असुर राम आदि धनपति राजाओं की दानशीलता का वर्णन किया है।
४. हरिवंश पुराण अध्याय ४-६. भागवत पुराण स्कन्ध ४ अध्याय १४ । ५. विष्णुपुराण प्रथम अंश, अध्याय १३, श्लोक १४ ।
६. मनुस्मृति ९. ६५. ६६ । ... ७. बृहद्धर्मपुराण उत्तरकाण्ड अध्याय १३ ।