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श्रीमद् विजयराजेन्द्रसूरि - स्मारक -ग्रंथ
दर्शन और ऋग्वेद १. १०१. ११ में इन्द्रद्वारा कृष्ण की गर्भवती स्त्रियों के मारे जाने का भी उल्लेख है । इसी सम्बन्ध में भागवत पुराण के दशम स्कन्ध २४, २५ अध्यायों में तथा हरिवंश पुराण अध्याय १८ में जो भगवान् कृष्ण द्वारा गोवर्धन पर्वत उठाने की कथा दी हुई है वह ऐतिहासिक दृष्टि से बड़े महत्त्व की है। इस कथा में बतलाया गया है कि एक बार शौरसेन देश में नन्द आदि गोपालोंने इन्द्र की संतुष्टि के लिए यज्ञ करने का विचार किया, परन्तु कृष्ण को उनकी यह बात पसन्द न आई। उसने उन्हें यज्ञ करने से रोक दिया । और गौओं को ले कर गोवर्धन पर्वत की ओर चल पड़ा । कृष्ण का यह कार्य इन्द्र को अच्छा न लगा । उसने रुष्ट हो कर मूसलाधार वर्षा द्वारा गोकुल को नष्ट करने का संकल्प कर लिया । इस पर कृष्ण ने गोवर्धन पर्वत हाथ में उठा और उसके नीचे गोकुल को आश्रय दे इन्द्र को असफल बना दिया ।
ऋग्वेदकालीन उत्तरी भारत में पांच क्षत्रिय जातियां प्रसिद्ध थीं । यदु, अनु, दुधु, तुर्वश और पुरु । ऋ. १०. ६२. १० में यदु और तुर्वश लोगों को दास संज्ञा से संबोधित किया है'। इसका कारण यही मालूम होता है कि वे वैदिक देवताओं और उनके लिए किये जानेवाले याज्ञिक अनुष्ठानों को माननेवाले न थे। दूसरे यदु और तुर्वश लोग कृष्णवर्ण के थे अर्थात् अनार्यजाति के थे । इस लिये उनका याज्ञिक अनुष्ठानों से विरोध करना स्वाभाविक ही था । यास्काचार्यकृत निघण्टु २. ३. में इन पांच क्षत्रिय जातियों की गणना देवों में न करके मनुष्यों में की गई है। अथर्ववेद १२. १. १५ में भी इन्हें 'पञ्च मानवाः ' तथा १२. १.४२ में ' पञ्च कृष्टयः ' कहा गया है । इसी आधार पर ए. बनर्जीने उपरोक्त क्षत्रियों की पांचों जातियों को आर्य न मान कर असुर जातियां कहा है । उपर्युक्त व्याख्या से यह स्पष्ट है कि शौरसेनदेश के निवासी यादव और तुर्वश लोग भी अहिंसा धर्म अनु. यायी थे । संभवतः तुर्वश लोग वे ही हैं जो पीछे से भारतीय मध्यकालीन इतिहास में तूर राजपूत के नाम से प्रसिद्ध हुए हैं ।
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अङ्गदेश के राजा आदित्यपुत्र वेन की कथा -
राजा अङ्ग के संसार से विरक्त हो वन में चले जाने पर उसका पुत्र वेन राज्यशासन का अधिकारी हुआ । वह अपने नाना यम के धर्ममार्ग का अनुयायी था । यम आध्यात्मिक
१. प्रमन्दिने पितुमदर्चता वचो यः कृष्णगर्भाः निरहन्नृजिश्वना ||
२. उत दासा परिविषे स्यद्दिष्टी गोपरीणसा । यदुस्तुर्वश्व मामहे ||
3. Dr. A. C. Das - Rigvedic culture. P. 128.
4. Dr. A. Banerjee - Asura India. PP 17-19; 84-40.
5. भागवत पुराण स्कन्ध ४ अध्याय १४ ।