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भारत की आहसा संस्कृति ।
उपसंहार
भारतीय जीवन का आदर्श सदा योगी जीवन रहा है । भारत के लोग परमात्मा की कल्पना भी योगी के रूपमें ही करते रहे हैं और परमात्मरूप बनने के लिए सदा योगी जीवन को अपने जीवन का ध्येय मानते रहे हैं । इस ध्येय को लेकर ही भव्यजन ईश्वर की उपासना करते हैं
सस्कृात
मोक्षमार्गस्य नेतारं भेत्तारं कर्म भूभृताम् ।
ज्ञातारं विश्वतानां वन्दे तद्गुणलब्धये ||
उमास्वातिकृत मोक्षशास्त्रका मंगलाचरण.
इसी ध्येय को ले कर भारत के प्रसिद्ध राजयोगी भर्तृहरिने कहा है -
एकाकी निःस्पृहः शान्तः पाणिपात्रो दिगम्बरः । कदा शम्भो भविष्यामि कर्मनिर्मूलनक्षमः ॥
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अर्थात् हे शम्भो ! वह दिन कब आयेगा जब अनादि कर्मबन्धनों को निर्मूल करने के लिए मैं योगियों के समान अकेला शान्तिभाव से बिना किसी वस्त्र उपकरण और आडम्बर के roa एवं निष्काम हो कर विचरूंगा ।
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इस लिए शास्त्रकारों की दृष्टि में वे ही सद्गृहस्थ हैं जो गृहस्थ में रहते हुए भी परमात्मपद की सिद्धि के लिए सदा योगी बनने की भावना बनाये रखते हैं । भारतीयजन श्रमण योगियों के समान ही अपने खान-पान, व्यवहार व व्यवसायों में अहिंसा को अपनाते रहे हैं। यहां के लोग सदा अन्न, शाकभाजी, स्वच्छ व्यवहारी बने रहे हैं । ये सदा व अथवा वृक्षों का सींचन करना, कीड़े मकोड़े आदि क्षुद्र जन्तुओं से ले कर काग, चिड़िया, बन्दर, बैल, गाय आदि पशुओं तक को आहार दान देना, सांपों तक को दूध पिलाना एक पुण्यकार्य मानते रहे हैं। यहां के लोगों का खानपान सदा से बहुत सीधा-सादा रहता चला आया है । कृषि और पशुपालन इन के मुख्य व्यवसाय रहे हैं।' कृषि के द्वारा ये विविध प्रकार के अन्न मुख्यतः यव (जौ), त्रीहि ( चावल ), गोधूम (गेहूं ), तिल, शामक, उड़द, मूंग, मसूर आदि पैदा करते थे । इन ही अन्नों और पशुओं से प्राप्त घी, दूध पर इन का जीवन निर्भर था। ये अपने पशुओं को घन और अन्न को धान्य कहा करते थे ।
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१. अथर्व १२. १. ४२ ।
२. ब्रह्मव मे यवाव मे माषाश्च मे तिलाश्च मे मुद्गाश्च मे मसूराश्च मे । यजुर्वेद १८. १२